________________
१६२ ]
:: प्राग्वाट इतिहास ::
[ द्वितीय
हाथों में घा और मुहपत्तिकायें हैं। एक साधु के हाथ में तरपणी है और एक अन्य साधु के हाथ में दण्ड है । अन्य पंक्तियों में हाथी, घोड़े, पालकी, नांटक के पात्र, वाद्यन्त्र, पैदल- सैन्य तथा पुरुषाकृतियाँ खुदी हैं । इस प्रकार राजवैभव के साथ श्री कृष्ण आदि समवशरण की ओर जा रहे
मण्डप के मध्य में तृगढ़ीय समवशरण की रचना है । समवशरण के मध्य में सशिखर मंदिर है, जिसमें प्रतिमा विराजमान है । समवशरण के पूर्व में ऊपर की ओर साधुओं की बारह बड़ी और दो छोटी खड़ी मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक साधु के एक हाथ में दण्ड, दूसरे में मुहपत्ति और बगल में ओवा दवा है । प्रत्येक श्रापिण्डली चद्दर पहिने हैं । दाहिना हाथ खुला है । तीन साधुओं के हाथों में छोटी २ तरपणियाँ हैं । दूसरी ओर इसके पश्चिम में ऊपर को श्रावकगण और उनके नीचे श्राविकायें हाथ जोड़ कर बैठी हैं।
३. देवकुलिका सं० ११ के मण्डपों में एक एक (२०, २१) हंसवाहिनी सरस्वतीदेवी की सुन्दर और मनोहर मूर्ति खुदी है।
दृश्य है । मण्डप
द्वितीय खण्ड में
४. देवकुलिका सं० १९ के द्वितीय मण्डप (२२) में श्री नेमिनाथ के बरातिथिसमारोह का सात खण्डों में विभाजित है । प्रथम खड हाथी, घोड़े और नाटक हो रहे हैं का दृश्य है । श्री कृष्ण और जरासंध में युद्ध हो रहा है। तृतीय खण्ड में नेमनाथ की बरातिथि का दृश्य है । चतुर्थ खण्ड में मथुरा और मथुरा में राजा उग्रसेन के राजप्रासाद का देखाव है । राजप्रासाद के ऊपर दो सखियों के सहित राजीमती खड़ी २ नेमनाथ के बरातिथिसमारोह को देख रही है । प्रासाद में अन्य पुरुषों का और द्वार में द्वारपाल के खड़े होने का दृश्य है । राजप्रासाद के द्वार के पास ही अश्वशाला है, जिसमें अश्वसेवक दो घोड़ों को मुंह में हाथ डाल कर कुछ खिला रहे हैं। दो घोड़े चारा चर रहे हैं । अश्वशाला के पश्चात् हस्तिशाला का दृश्य है । तत्पश्चात् विवाहलग्नार्थं बनी चौस्तंभी (चौरी) बनी है । इसके आस-पास में स्त्री, पुरुष खड़े हैं। चौस्तंभी के पीछे पशुशाला बनी
। पशुशाला के पास में पहुंचे हुए भगवान् नेमनाथ के रथ का देखाव है । पाँचवें खण्ड का दृश्य घटनाक्रम की दृष्टि से सातवें खण्ड में आना चाहिए था । मण्डप के बनाने वाले ने इस पट्टी को भूल से इस स्थान पर लगा दिया प्रतीत होता है । इस पट्टी के दृश्य का वर्णन आगे यथास्थान पर देना उचित है ।
छड्डे खण्ड में द्वारिकानगरी का पुनः दृश्य है । अश्वशाला और हस्तिशाला का देखाव है । तत्पश्चात् भगवान् वर्षीदान दे रहे हैं, उनके पार्श्व में द्रव्य-राशि का ढ़ेर पड़ा है । पश्चात् उनके महाभिप्रयाण करने का दृश्य है ।
सातवें खण्ड में भगवान् के दीक्षा कल्याणक का दृश्य है। जिसमें भगवान् अपने केशों का पंचमुष्टिलोच कर रहे हैं और हाथी, घोड़े और पैदल सैन्य खड़े हैं ।
पांचवें खण्ड में भगवान् कायोत्सर्ग-अवस्था में ध्यान कर रहे हैं और उनको वंदन करने के लिये चतुरंगी समारोह जा रहा है ।
५. देवकुलिका सं० १४ (२३) का द्वितीय मण्डप आठ दृश्यों में विभाजित है । सब से नीचे की प्रथम पट्टी में हस्तिशाला, अश्वशाला का ही दृश्य है और तदनन्तर राजप्रासाद बना हैं। राजप्रासाद के बाहर सिंहासन पर राजा विराजमान है । एक पुरुष राजा के ऊपर छत्र किये हुए हैं । एक मनुष्य राजा पर पंखा झल रहा है । इस दृश्य के पश्चात् दूसरी पट्टीपर्यंत सैनिक, हाथी और घोड़ों आदि के दृश्य हैं। तीसरी पट्टी के मध्य में