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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
[द्वितीय
र चतुर्थ यात्रा भी दंडनायक तेजपाल ने वि० सं० १२६० में अपने परिवार सहित की और अपने ही पांच परिजनों के श्रेयार्थ अलग २ देवकुलिकाओं में जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई।
पांचवीं और छट्ठी यात्रायें-दंडनायक तेजपाल की वि० सं० १२६३ में चै० कृ०७.८और वै० शु०१४-१५ पर हुई। इन दोनों अवसरों पर उसने अपनी सातो बहिनों के श्रेयार्थ देवकुलिकायें विनिर्मित करवा कर उनमें जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित की तथा एक अलग देवकुलिका में अपने मामा और मामी के श्रेयार्थ जिन-प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई ।
इन्हीं यात्राओं के अवसरों पर चन्द्रावती के निवासी प्राग्वाटवंशीय श्रेष्ठियों ने भी अपने और अपने पूर्वज तथा परिजनों के श्रेयार्थ जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें करवाई। उनका भी उल्लेख यहीं देना समुचित है। मेरा अनुमान है कि ये अंष्ठिजन तेजपाल के श्वसुरालय-पक्ष से कुछ संबंध रखते हों, क्योंकि तेजपाल की बुद्धिमती एवं गुणवती स्त्री अनोपमा चन्द्रावती की थी।
श्रे० साजण वि० सं० १२६३
चन्द्रावती के निवासी प्राग्वाटज्ञातीय महं० कउड़ि के पुत्र श्रे० साजण ने अपने काका के लड़के भ्राता वरदेव, कडुया, धर्मा, देवा, सीहड़ तथा भ्रातृज आसपाल आदि कुटुम्बीजनों के सहित तथा देवी, रत्नावती और झणकूदेवी नामक बहिनों और बड़ग्रामवासी प्राग्वाटज्ञातीय व्यव० मूलचन्द्रभार्या लीबिणी,मोंटग्रामवासी व्य० जयंत, आंबवीर, विजइपाल और प्रचारिका बीरा, सरस्वती तथा अपनी स्त्री झालू आदि की साक्षी से श्री अर्बुदाचलतीर्थस्थ श्री लूणवसतिकाख्य नेमिनाथचैत्यालय में पन्द्रवी देवकुलिका करवा कर उसमें आदिनाथप्रतिमा को श्री नागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसूरि के करकमलों से वि० सं० १२६३ चैत्र कृ. ८ शुक्रवार को प्रतिष्ठित करवाई तथा श्री आदिनाथपंच-कल्याणकपट्ट भी करवाकर प्रतिष्ठित करवाया ।*
वंश वृक्ष ___ महं० कउड़ि
' साजण देवी रत्नावती झणक
वरदेव कया धर्मा देवा सीहड़
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आशपाल
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*अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले० २८६, २६०