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________________ १७२] :: प्राग्वाट-इतिहास :: [द्वितीय करने की अभिलाषा हुई। दोनों मंत्रीभ्राताओं ने अनुपमा के प्रस्ताव का मान किया और वि० सं० १२८६ में लूणसिंहवसहिका का निर्माण शोभन नामक एक प्रसिद्ध शिल्पशास्त्री की अध्यक्षता में प्रारम्भ कर दिया । अर्बुदगिरि चन्द्रावतीपति के राज्य में था। उस समय चन्द्रावतीपति प्रख्यात धारावषे था। वह यद्यपि पत्तनसम्राट का माण्डलिक राजा था; परन्तु महामात्य वस्तुपाल की आज्ञा लेकर दण्डनायक तेजपाल चन्द्रवतीनरेश से मिलने के लिए चन्द्रावती गया और अर्बुदगिरि पर श्री नेमनाथजिनालय बनवाने की अपनी भावना व्यक्त की। धारावर्ष ने सहर्ष अनुमोदन किया और हर कार्य में सहायता करने का वचन दिया । अनुपमा भी अचूदगिरि पर बसे हुये देउलवाड़ा ग्राम में ही जाकर रहने लगी। मजदूरों और शिल्पियों की संख्या सहस्रों थी, परन्तु उनको खाने-पीने का प्रबन्ध सर्व अपने हाथों करना पड़ता था । इस स्थिति से अनुपमा को निर्माण में बहुत अधिक समय लग जाने की आशंका हुई। तुरन्त उसने अनेक भोजनशालायें खोल दी और श्रोढने-बिछाने का उत्तम प्रबन्ध करवा दिया। रात्रि और दिवस कार्यचल कर वि० सं० १२८७ में हस्तिशालासहित वसहिका बनकर तैयार हो गई। वैसे तो वसहिका में देवकुलिकायें और छोटे-मोटे अन्य निर्माणकार्य वि० सं० १२६७ तक होते रहे थे, लेकिन प्रमुख अंग जैसे मूलगर्भगृह, गूढमण्डप, नवचतुष्क (नवचौकिया) रंगमण्डप, वलानक, खत्तक और भ्रमती तथा विशाल हस्तिशाला, जिनमें से एक-एक का निर्माण संसार के बड़े २ शिल्पशास्त्रियों को आश्चर्यान्वित कर देता है, दो वर्ष के समय में बनकर तैयार हो गये। अनुपमा की कार्यकुशलता, व्यवस्थाशक्ति, शिल्पप्रेम, धर्मश्रद्धा और तेजपाल की महत्वभावना, स्त्री और पुत्रप्रेम, अर्थ की सद्व्ययाभिलाषा, धर्म में दृढ़ भक्ति और साथ में शोभन की शिल्पनिपुणता, परिश्रमशीलता, कार्यकुशलता लूणसिंहवसहिका में आज भी सर्व यात्रियों को ये मूर्तरूप से प्रतिष्ठित हुई दिखाई पड़ती हैं। इस बसहिका के निर्माण में राणक वीरधवल की भी पूर्ण सहानुभूति और पूर्ण सहयोग था। चन्द्रावती के महामण्डलेश्वर धारावर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसका योग्य पुत्र सोमसिंह चन्द्रावती का महामण्डलेश्वर बना था । सोमसिंह ने भी अपनी पूरी शक्तिभर अनुपमा को वसहिका के निर्माण में जन और श्रम से तथा राज्य से प्राप्त होने वाली अन्य अनेक सुविधाओं से सहयोग दिया था। लूणसिंहवसहिका जब बनकर तैयार गई तो धवलकपुर से महामात्यवस्तुपाल सपरिवार विशाल चतुर्विधसंघ के साथ में अर्बुदगिरि पर पहुँचा । वि० सं० १२८७ फा० कृ० ३ रविवार (गुज० चै० कृ. ३) के दिन मंत्री भ्राताओं के कुलगुरु नागेन्द्रगच्छीय श्रीमद् विजयसेनसूरि के हाथों इस वसहिका की प्रतिष्ठा हुई और वसहिका में स्थित नेमनाथबावनचैत्यालय में भगवान् नेमनाथ की प्रतिमा विराजमान की गई। प्रतिष्ठोत्सव के समय चन्द्रावती का मण्डलेश्वर वसहिका के गृढमण्डप के सिंहद्वार का लेख 'नृपविक्रमसंवत् १२८७ वर्षे फाल्गुण सु (व) दि ३ सोमे (खौ) अद्यह श्रीअर्बुदाचले श्रीमदरणहिल पुखास्त० प्राग्वाटज्ञातीय श्रीचण्डप श्रीचण्डप्रसाद महं श्री सोमान्वये महं० श्रीश्रासराजसुत महं० माल देव महं० श्रीवस्तुपालयोरनुजभात महं० श्री तेज [] पालेन स्वकीय भार्या महं० श्री अनुपमादेवि (वी) कुक्षिसंभूत सुत महं० श्री लूणसीह पुण्यार्थ अस्यां श्री लूणावसाहिकायाँ श्री नेमिनाथमहातीर्य कारितं ॥छाछ। अ० प्रा० ० ले० सं० ले०२६० गुजराती वर्ष एक महा पश्चात् शुरु होता है। राजस्थान में जब चैत्र माह होता है, गुजरात में फाल्गुण माह होता है। हमारी मान्यतानुसार लूणसिंहवसहिका की प्रतिष्ठा वि० सं० १२८७ चैत्र कृ०३ रविवार और गुजराती मान्यतानुसार फा० कृ०३ रविवार को हुई।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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