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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ द्वितीय
महामात्य का लघुभ्राता गुर्जर महाबलाधिकारी दं० तेजपाल और उसका परिवार
श्रश्वराज - कुमारदेवी का यह चतुर्थ पुत्र था । इसका जन्म वि० सं० १२४४-४६ में हुआ था । लूणिग और वस्तुपाल के साथ ही श्वराज ने तेजपाल को भी पढ़ने के लिये पत्तन भेज दिया था । लेकिन तेजपाल का मन तेजपाल और उसकी स्त्रियां पढ़ने में कम लगता था । खेल-कूद, कुस्ती में इसकी अधिक रुचि थी । लूगिंग की अनुपमादेवी और सुहड़ादेवी मृत्यु के पश्चात् यह विद्याध्यन छोड़ कर अपने माता-पिता के साथ ही रहने लगा था । धनुर्विद्या में, घोड़े की सवारी में, तैरने में और तलवार और भाले छीं के प्रयोगों में ही उसको आनंद आता था । १८ - २० वर्ष की आयु में इसकी वीरता और निडरता की बातें मण्डलेश्वर लवणप्रसाद और राणक वीरधवल के कानों तक पहुँच गई थीं। तेजपाल जैसा बहादुर था वैसा ही व्यापारकुशल था । लूणिग और मल्लदेवी की मृत्यु के पश्चात् घर का सारा भार तेजपाल के कंधों पर आ पड़ा था । अश्वराज वृद्ध हो चुके थे और उनकी आय इतनी अधिक नहीं थी कि दो पुत्र, दो पुत्र बधुओं और सात पुत्रियों का तथा पौत्र और पौत्रियों का निर्वाह कर सकते थे और वस्तुपाल भी बड़ी आयु तक पत्तन में विद्याभ्यास ही करता रहा था। तेजपाल ने बड़ी योग्यता से व्यापार खूब बढ़ाया । यही कारण था कि वस्तुपाल बड़ी आयु तक पत्तन में रह कर निश्चिन्तता के साथ विद्याध्यन करता रहा था । तेजपाल का विवाह चन्द्रावती के निवासी प्रसिद्ध प्राग्वाटवंशीय शाह धरणिग की स्त्री त्रिभुवनदेवी की कुक्षी से उत्पन्न अनुपमादेवी के साथ हुआ था । अनुपमा गुणों में चन्द्रिका थी । वस्तुपाल, तेजपाल के घर की समृद्धि ही अनुपमा थी । अनुपमा की सम्मति लिये बिना दोनों मंत्री भ्राता कोई भी महत्व का कार्य, चाहे राजनीतिक हो, धार्मिक एवं साहित्यिक हो, सामाजिक हो, कला तथा निर्माणसम्बन्धी हो कभी भी नहीं करते थे । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद तथा राणक वीरधवल और महाराणी जयतलबा भी अनुपमा का बड़ा मान करते थे और उचित अवसरों पर उसकी सम्मति लेते थे । अनुपमा जैसी महा बुद्धिशाली स्त्री अगर वस्तुपाल तेजपाल के घर में नहीं होती तो वस्तुपाल तेजपाल की जो आज राज्यनीति और धर्मनीति के क्षेत्र में कीर्ति और स्तुति है वह बहुत न्यून होती और धार्मिकक्षेत्र में तो संभवतः नाममात्र की ही होती । अर्बुदगिरि पर विनिर्मित ' लूणिगवस्ति' जो की आज भारत के ही नहीं, यूरोप, अमेरीकादि समुन्नत देशों के कलामर्मज्ञों को आश्चर्यान्वित करती है अनुपमा की ही एकमात्र बुद्धि, सम्मति और श्रम का परिणाम है । अधिकांश महत्वशाली धार्मिक कार्य जैसे साधर्मिकवात्सल्य, संघपूजा, तीर्थयात्रा, सूरिपदोत्सव, उद्यापन - तप, प्रतिष्ठायें, नवीन चैत्यादि के निर्माण संबंधी प्रस्ताव प्रथम अनुपमा की ओर से ही प्रायः आते थे और वे सभी को सर्वमान्य होते थे । वस्तुपाल की बड़ी पत्नी ललितादेवी यद्यपि कुलमर्यादा के अनुसार घर में बड़ी गिनी जाती थी, लेकिन वह भी अनुपमा का उसके सुन्दर गुणों के और सुन्दर स्वभाव के कारण अपने से कुल बड़ी स्त्री के समान मान करती थी । नित्य अनुपमा अपनी देखरेख में भोजन बनवाती और अपने हाथ से अभ्यागतों, अतिथियों, साधु-मुनिराजों को भोजन दान कर लेने के पश्चात् दीनों, हीनों की याचनायें पूर्ण कर लेने के पश्चात् तथा मन्त्री भ्राताओं के भोजन कर लेने के पश्चात् कुल की सर्व स्त्रियों के साथ भोजन करती थी । सैनिक, अंगरक्षक, दासदासी की भोजन-वस्त्र संबंधी पूरी संभाल करती थी। सच तो यह है कि वस्तुपाल तेजपाल जो ऐसे समय में