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________________ १६४ ] :: प्राग्वाट-इतिहास: [द्वितीय की आज्ञा से घर आया । ललितादेवी की छोटी बहिन सुहवदेवी थी । सुहवदेवी का विवाह भी महामात्य वस्तुपाल के साथ ही हुआ था। ऐसा लगता है कि इस विवाह में ललितादेवी का भी आग्रह रहा हो । ललितादेवी की कुक्षी से महाप्रतापी बालक जैत्रसिंह जिसको जयंतसिंह भी कहते हैं, उत्पन्न हुआ। सुहवदेवी के प्रतापसिंह नामक पुत्र हुआ।१ प्रतापसिंह के पुत्र के श्रेयार्थ जैत्रसिंह ने एक पुस्तक लिखवाई । वेजलदेवी के भी एक से अधिक सन्तान उत्पन्न नहीं हुई थी। वस्तुपाल अपनी दोनों स्त्रियों का समान आदर करता था । ललितादेवी बड़ी होने से घर में भी प्रधान थी। वस्तुपाल ने अपनी दोनों स्त्रियों के नाम चिरस्मरणीय रखने के लिये कई मठ, मन्दिर, वापी, कूप, सरोवर विनिर्मित करवाये थे । गिरनारपर्वत पर, शत्रुजयतीर्थ पर जितने धर्मस्थान वस्तुपाल ने करवाये, उनमें से अधिक इन दोनों सहोदराओं के श्रेयार्थ ही बनवाये गये थे। ललितादेवी और वेजलदेवी दोनों अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की उच्च कोटि की स्त्रियाँ थीं । वस्तुपाल के प्रत्येक कार्य में इनकी सहमति और इनका सहयोग था । दोनों का स्वभाव बड़ा उदार और हृदय अति कोमल था । नित्य ये सहस्रों रुपयों का अपने करों से दान करती थीं। अभ्यागतों की, दीनों की सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। अगर इनमें इन गुणों की कमी होती तो वस्तुपाल अनन्त धनराशि धर्मकार्यों में व्यय नहीं कर सकता था । ललितादेवी वस्तुपाल के अपार वैभवपूर्ण घर की सम्पूर्ण आंतरिक व्यवस्था को, जो एक बड़े राज्य के कार्यभारतुल्थ थी बड़ी कुशलता एवं तत्परता के साथ अपने परिवार की अनुपमादि अन्य स्त्रियों के सहयोग से स्वयं करती थी। तीर्थों में, नगर, पुर, ग्रामों में होते धार्मिक एवं साहित्यिक कार्यों में भी यह रुचि लेती थी । वस्तुपाल युद्ध एवं राज्यसम्बन्धी कार्यों में भी इसकी सम्मति लेता था। वस्तुपाल के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक छोटे-बड़े सर्व कार्य ऐसी आज्ञाकारिणी, धर्मप्रवृत्ति वाली पत्नी की सहचरता एवं इसके द्वारा प्राप्त सुख-साधन के कारण अत्यन्त सरल और सुन्दर हो सके थे । ललितादेवी और सोखुका दोनों बहिनें उच्च कोटि की वीराङ्गनाएँ थीं। अगर ऐसा नहीं होता तो वस्तुपाल छोटे-बड़े ६३ तरेसठ संग्रामों में कैसे भाग ले सकता था और कैसे सफलता प्राप्त कर सकता था । समर में जाते समय अपने पति एवं पुत्र की वेष-भूषा ये स्वयं सजाती थीं और उनको सहर्ष युद्ध के लिये मंगलगीत गाकर भेजती थीं। अनेक बार ऐसे भी अवसर आते थे कि वस्तुपाल, तेजपाल, जैत्रसिंह, लावण्यसिंह और स्वयं राणक वीरधवल, मण्डलेश्वर लवणप्रसाद और राज्य के समस्त प्रसिद्ध वीर, सामन्त सर्व या इनमें से अधिक धवलकपुर छोड़ कर संग्रामों में चले जाते थे, तब उस समय ये ही बहिनें महाराणी आदि के साथ मिलकर नगर और प्रान्त की रक्षा का भार सम्भालती थीं। संघयात्राओं में सम्मिलित हुये पुरुषों की अभ्यर्थना में स्वयं अधिक भाग लेती थीं। ये उदारचेत्ता रमणीय, वीरांगनाएं, देश और धर्म की सर्वस्वत्यक्ता सेविकायें कला और साहित्य की भी प्रेमिकायें थीं । वि० सं० १२६६ में शत्रुजयतीर्थ की १३वीं यात्रा को जाते समय अंकेवालियाग्राम में माघ शुक्ला ५ मी सोमवार को महाभात्य की मृत्यु हुई, तब तक ये जीवित थीं ।२ १-जै० पु० प्र० सं० प्र० ७ पृ०६ २-५० वि० ५० XI चरणलेख १, ३ शत्रजयतीर्थ के लिये १२॥ और अर्बुदगिरि के लिये एक तीर्थयात्रा-इस प्रकार वस्तुपाल की संघपति रूप से निकाली हुई तीर्थयात्रायें १३॥ होती है।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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