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: प्राग्वाट-इतिहास ::
. द्वितीय
चार मण्डलेश्वर राजा भी संघ की रक्षार्थ महाराणक वीरधवल की आज्ञा से इस संघ में सम्मिलित हुये थे। इस संघ-यात्रा का वैभव दर्शनीय था।
___ नागेन्द्रगच्छीय विजयसेनसरि संघाधिष्ठाता थे । संघपति महामात्य वस्तुपाल था। महामात्य ने स्वविनिर्मित शत्रुजयावतार नामक मन्दिर में संगीत, नृत्य करवाया और महापूजा करवाई, संघवात्सल्य किया । तत्पश्चात संघ का वैभव तथा उसका शुभमुहूर्त में धवलकपुर से सङ्घ का प्रस्थान हुआ । सङ्घ-रचना इस प्रकार थीप्रयाण
महासामन्त ४, वीर अश्वारोही ४००० (१०००), रणवीर
३६०, प्रसिद्ध हाथी ८, हाथीदाँत के बने हुये रथ २४, तेज चलने वाली बैलगाड़ियाँ १८००, छत्रधारी संघपति ४, श्रीकरण
१६००, लाल साँदनियाँ ___७००, सहजगाड़ियाँ १८००, पालखियाँ
५००, तपस्वीजन - १२०० (२२००), दिगम्बर साधु ११०० (३००), श्वेताम्बर साधु
२१००, आचार्य ३३० (३३३,७००), मागध ३००, शिविरमन्दिर
(तम्बुओं में जिनालय), .. शिविरगृह
७०००, सतोरण मन्दिर ७००, लघुमन्दिर अगणित, हाड़ियाँ ५००, कुदालियाँ ५००, बैलगाड़ियाँ ४००० (५५००), भट्ट
३३००, जैनगायक ४५० (४८४), श्रावकजन ७०००० (१०००००) ____ संघ में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, चारण, मागध, बंदीजन, अंगरक्षक, अश्वारोही आदि सर्वजनों की संख्या एक लक्ष के लगभग थी।
संघपति महामात्य वस्तुपाल ज्योंहि देवालय के प्रस्थान का शुभमुहूर्त करने लगा कि दाहिनी दिशा से दुर्गादेवी का स्वर सुनाई पड़ा। मरुप्रदेश के निवासी एक वयोवृद्ध ने बतलाया कि यह दुर्गा १२॥ हाथ ऊँची दीवार पर बैठकर स्वर कर रही है, जिसका अर्थ यह होता है कि महामात्य वस्तुपाल १२॥ संघयात्रायें अपने जीवन में
'श्रथ स मरुवृद्धो 'देवी भवतः सार्द्धत्रयोदशसंख्या यात्रा अभिहितवती । 'संघरक्षाधिकारिणञ्चत्वारो महासामन्ता'।
प्र.चि. च० प्र०१८७) पृ०१०० 'संवत्सरोऽस्ति मन्त्रीन्द्र, सप्ताश्वरवि (१२७७) संमिता ॥२६॥ प्र०५पृ०७४ .........."विजयसेनसरयः । कुलक्रमागताः संति गुरवो वो गुणोज्ज्वला ॥४॥.८० 'तथा विधियता तीर्थयात्रा पात्रार्थसाधनम् । भवद्भिनिंजसाम्राज्य-सौराज्यस्थितिसचिनी' ३॥ प्र०.६ ०८२ 'सोमसिंहादयः प्रौढा-श्चत्वारस्तत्र भूभुजः। नियुक्ताः संघरक्षायै, सचिवाभ्या सहाचलन्। . श्लोक ६ प्र०६ पृ० ८३ ..........""कमेणापतुर्वर्द्धमाननाममहापुरे॥४८॥
प्र०६ १०८४ व० च० ..........."अस्ति रत्नाभिधः श्रेष्ठी...... |५|| 'तस्यागारे .. .......||५३।। 'शंखोऽस्ति दक्षिणावर्तः............ ||५४॥
व० च०प्र०६ पृ०८४ 'एवं चलति देवालये दक्षिणदिग्भागे दुर्गा जाता। तत्रैको मारव......"देव'... "भवतामित्थं ॥१२॥ 'यात्रा भविष्यन्ति [Ps एषा प्रथमा तासा मध्ये'।] .
पु०प्र०सं०व० ते०प्र० पृ०५६ रचनाशैली, कथावस्तु आदि कतिपय विषयों में कीर्तिकौमुदी, सुकृतसंकीर्तन, वसंतविलास महाकाव्य परस्पर अत्यधिक मिलते हैं । सर्गों के नाम तो तीनों में प्रायः कम से मिलते हुए हैं । शंखयुद्धवर्णन के पश्चात् तीनों काव्यों में यात्रावर्णन आता है और वह वर्णन भी एक ही संघयात्रा का प्रत्येक ग्रन्थ में है। तीनों ग्रन्थों में तो संघयात्रा का वर्णन मिलता हुआ है ही अतिरिक्त इसके