________________
खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और वस्तुपाल के महामात्य बनने के।
गुजरात :: [ ११३
I
को पुनः समृद्ध और सुखी बनाने में असमर्थ रहा । कुछ सामन्त एवं माण्डलिक राजाओं के अतिरिक्त सर्व स्वतन्त्र हो गये । भीमदेव द्वि० की राज्य सत्ता पत्तन के आस-पास की भूमि पर रह गई । भीमदेव द्वि० निराश और निर्बल-सा महलों में पड़ा रहने लगा और उदासीन और संन्यासी की भाँति दिन व्यतीत करने लगा । समस्त गुजरात में अराजकता प्रसारित हो गई। चौर और लूटेरों के उत्पात बढ़ गये । व्यापार नष्ट हो गया । यात्रायें बंध हो गई । राजधानी अणहिलपुरपत्तन भी अब शोभाविहीन, समृद्धिहत-सा प्रतीत होता था । वह राजद्रोही एवं विश्वास - घातकों के षड़यन्त्रों की रंगभूमि बन गई । १
1
मालवा के परमारों और गुजरात के चौलुक्यों में पारस्परिक द्वंद्वता सदा से चली आ रही थी । इस समय मालवा की राजधानी धार में सुभटवर्मा राज्य कर रहा था । उसने गूर्जरसम्राट् भीमदेव द्वितीय को निर्बल समझ मालपत कर गुजरात पर आक्रमण शुरु कर दिये । वि० सं० १२६६ (ई० सन् १२०१) तक समस्त गुजरात सुभटवर्मा के आक्रमणों से समाक्रांत रहा और उसको पुनः समृद्ध औ
आक्रमण
संगठित होने का अवसर ही नहीं मिला । २ भरोच के चौहान राजा सिंह ने जो पत्तन का माण्डलिक राजा था. सुभटवर्मा का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। भद्रेश्वर के राजा भीमसिंह ने, गोध्रा के राजा ने भी पत्तन के गुर्जर - सम्राटों से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिये । ये इस प्रकार स्वतन्त्र हुये सामन्त, माण्डलिक, ठक्कुर गुर्जरसम्राटों के शत्रु राजाओं से मिलकर या गुजरात में उत्पात, अत्याचार, लूट-खशोट कर अपनी जड़ सुदृढ़ बनाने लगे । फलतः वि० सं० १२६६ ( ई० सन् १२०६ ) में पत्तन पर हुये सुभटवर्मा के आक्रमण के समय निर्बल गूर्जरसम्राट् भीमदेव द्वि० के चरण उखड़ गये और वह सौराष्ट्र या कच्छ की ओर भाग गया । सुभटवर्मा ने दावानल की भांति समस्त गुजरात को अपनी क्रोधानल की ज्वालाओं से भस्म कर अपने पूर्वजों का गुर्जरसम्राट् से प्रतिशोध लिया । पत्तन को बुरी तरह नष्ट कर वह शीघ्र ही धार को लौट गया । बि० स० १२६७ (ई० सन् १२१०) में सुभटवर्मा की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र अर्जुनवर्मा धाराधीप बना । मृत्यु से भीमदेव द्वि० को पत्तन पर पुनः अधिकार प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो गया । सन् १२०६ ) के अंत में उसने पत्तन पर अधिकार कर लिया और 'अभिनव सिद्धराज' के आगे 'जयंतसिंह' पद जोड़कर 'अभिनव सिद्धराज जयंतसिंह' की पदवी धारण की । ३ परन्तु अर्जुनवर्मा ने पुनः अभिनवसिद्धराज जयंतसिंह भीमदेव द्वि० को पर्व पर्वत के स्थान पर भीषण रण करके परास्त किया । भीमदेव द्वि० ने पुनः वि० सं० १२७५
सुभटवर्मा की वि० सं० १२६६ ( ई० पत्तन की पुनः प्राप्ति । अर्जुनवर्मा की मृत्यु । देवपाल की
पराजय
१- की० कौ० सर्ग २, श्लोक १०, १६, ३१, ७४.
सु० स० सर्ग २, श्लोक १३, १८, २३, ३४.
२ - G. G. Part lil F. 209, 210.
'सतत विततदान क्षीणनिःशेषलक्ष्मीरितसितरुचिकीत्तिर्भीमभूमीभुजङ्गः ।
बलकवलितमूमीमण्डलो मण्डलेशैश्विरमुपचितचिंताचतिचिंततिरोऽभूत् ॥५१॥
सु० सं० सर्ग २ पृ० १६
३–(अ) G. G. Part III P. 210. पर कन्हैयालाल मुंशी ने शिलालेखों में, ताम्रपत्रों में उल्लिखित जयन्तसिंह को भीमदेव द्वि० से अलग सम्राट्वत् व्यक्ति माना है, जिसने पत्तन के सिंहासन पर अनधिकार प्रयास किया था ; परन्तु उसका कोई शिलालेख प्राप्त नहीं है ।