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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[द्वितीय
पत्तन की ओर मुड़े तो उन्होंने विश्वासघातक जयन्तसिंह के पत्तन के राजसिंहासन पर बैठने के समाचार सुने । अन्त में सम्राट् और जयंतसिंह के मध्य भयंकर रण हुआ और जयंतसिंह परास्त होकर सम्राट का बन्दी बना । इस युद्ध में मन्त्री अश्वराज और उपसेनापति अाभूशाह ने बड़ी नीतिज्ञता एवं स्वामिभक्ति का परिचय दिया था तथा जयंतसिंह को परास्त करने में सम्राट की प्राणप्रण से सहायता की थी। मण्डलेश्वर गूर्जरसेनाधिपति लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवल ने प्राणों की बाजी लगाकर यवनों को गूर्जरभूमि से बाहर निकालने में तथा जयंतसिंह को उसके दुष्कृत्य का फल चखाने में सम्राट् की भुजायें बनकर सम्राट के मान और प्रतिष्ठा की पुनः प्राप्ति की एवं सम्राट का पत्तन के राजसिंहासन पर पुनः अधिकार जमाने में पूरी २ सहायता की। ____ सम्राट भीमदेव जब पुनः इस बार पत्तन के राजसिंहासन पर विराजमान हुये तो उन्होंने अपने विश्वासपात्र, सामन्त, माएडलिक, मन्त्री एवं अन्य राज्यकर्मचारियों को एकत्रित करके मण्डलेश्वर लवणप्रसाद को उसकी अमूल्य सेवाओं से मुग्ध होकर महामण्डलेश्वर का पद प्रदान किया तथा महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद के पुत्र वीर, धीर, स्वामीभक्त वीरधवल को अपना युवराज बनाने की इच्छा प्रगट की और इस इच्छा के अनुसार युवराजपद प्रदान करने की घोषणा का दिन निश्चय करने का भार सम्राट् ने स्वयं अपने उपर रक्खा । उपस्थित सर्व सामन्त, मन्त्री, माण्डलिकों एवं नगर के प्रमुख श्रेष्ठियों ने सम्राट की योग्य इच्छाओं का मान करते हुये उनका समर्थन किया । पत्तन का राजसिंहासन जो इस बार सम्राट भीमदेव ने पुनः प्राप्त किया था, उसमें उन्होंने स्वर्गस्थ सम्राट सिद्धराज जयसिंह जैसा शौर्य एवं पराक्रम प्रदर्शित किया था अतः पत्तन के राजसिंहासन पर बैठकर सम्राट ने *'अभिनव सिद्धराज' की उपाधि ग्रहण की। पत्तन का सिंहासन तो प्राप्त कर लिया परन्तु फिर भी वह गूर्जरभूमि
कु० च० H. I. G. Part II. *(अ) वि० सं०१२५६ भाद्रपद कृष्णा अमावश्या मंगलवार
प्रथम ताम्र-पत्र १४-'पराभूतदुर्जयगर्जनकाधिराज श्री मूलराजदेवपादानुध्यात परमभट्टा
१५-क महाराजाधिराज परमेश्वराभिनवसिद्धराज श्रीमद्भीमदेव स्वभुज्य' Ms. No. 158 (ब) वि० सं० १२६३ श्रावण शुक्ला २ रविवार
प्रथम ताम्र-पत्र ११-'श्रीमूलराज देवपादानुध्यातपरमभट्टारक महाराजाधिराजपरमेश्वराभिनवसिद्धराज१२-श्रीमद्भीमदेव
.......... Ms. No. 160 (स) वि० सं० १२६६. सिंह सं०६६
द्वितीय ताम्र-पत्र ..........."परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वराभिनवसिद्धराज१९-देवबाल नारायणावतार श्रीभीमदेव कल्याण'
..........." Ms. No. 162 'परमेश्वराभिनवसिद्धराज' पद केवल द्वि० भीमदेव के साथ ही लगा है-ऐसा गूर्जरसम्राटों के अनेक शिलालेख एवं ताम्र-पत्रों से सिद्ध होता है।
पं० लालचन्द्र भगवान्दासजी गांधी 'जयन्तसिंह के नाम को सिद्धराज जयसिंह' उपाधि के पद 'जयसिंह' का जयन्तसिंह भ्रम से हुआ मानते हैं। वे इस नाम का पुरुष नहीं मानते ।
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