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________________ :: प्राग्वाट-इतिहास : [प्रथम इस शाखा के प्रथम जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों की उत्पत्ति वि० संवत् की आठवीं शताब्दी में ही हुई थी। विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक यह शाखा जैनधर्म ही मुख्यतया पालती रही। परन्तु जब बृहत्पक्ष और लघुपक्ष में अधिक घृणा के भाव बढ़ने लगे तो इस शाखा के अधिकांश कुलों ने रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य के प्रभावक व्याख्यानों एवं उपदेशों को श्रवण करके वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया और जैन से वैष्णव हो गये। अब तो इस शाखा में रामस्नेही-पंथ के अनुयायी भी बहुत कुल हैं। इस शाखा के लगभग १००० एक हजार घर नेमाडप्रान्त में भी रहते हैं, वे सर्व जैन हैं, जिनके विषय में अलग लिखा जायगा। . . जैसे अन्य शाखायें सौरठिया, कपोला, पद्मावती, गूर्जर कहलाती हैं यह लघुसन्तानीय शाखा जांगड़ा कहलाती है। जांगड़ा शब्द जंगल से बनता है। जंगल का विशेषणशब्द जंगली बनता है। राजस्थानी भाषा जागड़ा उपाधि कब और में जंगली को जांगडूस अथवा जांगड़ा कहते हैं। जांगड़ा शब्द अधिक प्रचलित है । क्यों ग्रहण की गई कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि इस शाखा के ज्ञाति-नाम के साथ में जांगड़ा शब्द कब और क्यो प्रयुक्त हुआ । अनुमान से विचार करने पर इतना अवश्य समझ में आता है कि इस जाति को विषम परिस्थितियों का भयंकर सामना करना पड़ा है और अपने प्राण, धन, जन, मान की रक्षा के लिये सम्भव है जंगल में जीवन व्यतीत करना पड़ा है अथवा 'जंगल' नाम के किसी प्रदेश में रहना पड़ा है। बीकानेर के राजा की 'जंगल-धरबादशाह' उपाधि है। इस ज्ञाति के वृद्धजन एवं अनुभवी पुरुष कहते हैं कि इस ज्ञाति के अधिकांश घर पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग दिल्ली और जहानाबाद नगरों में और उनके आस-पास के ग्रामों में बसे हुये थे। ये घर वहाँ कब जाकर बसे और क्यों यह भी कहना उतना ही कठिन, जितना इस प्राग्वाटज्ञाति की अन्य शाखाओं के लिये अन्य प्रान्तों में जाकर बसने की निश्चित तिथि अथवा संवत् कहने के विषय में था। परन्तु इतना अवश्य सत्य है कि इस शाखा के घर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक राजस्थान, गुजरात में बसे हुये थे। एक दन्तकथा ऐसी प्रचलित है कि सम्राट अकबर के राज्यकाल में इस शाखा के कई वर दिल्ली में बसते थे। अकबर सम्राट के लिये यह तो प्रसिद्ध ही है कि उसने भारत के प्रसिद्ध ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यकुलों से डोले लिये थे। इस शाखा के एक अति प्रतिष्ठित, कुलवंत श्रीमन्त सज्जन दिल्ली में रहते थे। उनकी एक परम रूपवती कन्या का किसी वर्ष में विवाह हो रहा था । किसी प्रकार सम्राट अकबर ने उस रूपवती कन्या को देख लिया और कन्या के पिता से उस कन्या का डोला माँगा । कुमारी कन्या का डोला भी जहाँ यवनों को देना बड़ा घृणा का विषय था, विवाही जाने वाली कन्या का डोला देना तो और अधिक घृणात्मक था। इस शाखा में ही नहीं, समस्त वैश्यज्ञाति में सम्राट की इस अनुचित माँग से खलबली मच गई। सम्राट के दरबार में राजा टोडरमल का बड़ा मान था । टोडरमल स्वयं वैश्य थे, उनको भी बादशाह की यह माँग बहुत ही बुरी प्रतीत हुई। इस लघुपक्ष के प्रतिष्ठित लोग टोडरमल के पास में गये और बादशाह को समझाने की प्रार्थना की। राजा टोडरमल अकबर के हठाग्राही स्वभाव को जानते थे, फिर भी उन्होंने आये हुये लघुपक्ष के सज्जनों को आश्वासन दिया और कहा कि वह बादशाह को समझा लेगा। दूसरे दिन जब राजा टोडरमल बादशाह से मिलने गये तो बादशाह ने भी टोडरमल से उसी बात की चर्चा की कि तुम्हारी वैश्यज्ञाति की उस लड़की का डोला तुरन्त रणवास में
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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