________________
४६. ]
:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ द्वितीय
आज सौरठिया पौरवाल, कपोला- पौरवाल एवं गूर्जर - पौरवाल शाखाओं के कुलों के गोत्र और कुलदेवियों के म विस्मृत हो गये हैं । कारण इसका यह है कि इन कुलों के कुलगुरुयों से इन कुलों का दूर प्रान्तों में जाकर बस जाने से संबंधविच्छेद कई शताब्दियों पूर्व ही हो चुका है और फलतः गोत्र बतलानेवाली और कुलों का वर्णन परंपरित रूप से लिखने वाली संस्थाओं के अभाव में गोत्रों और कुलदेवियों के नाम धीरे २ विस्मृत हो गये । उक्त प्रान्तों' में बसनेवाले पौरवाल ही क्या अन्य जैनज्ञातियों के कुलों के गोत्र भी इन्हीं कारणों से विलुप्त हैं । कहावत भी प्रचलित है, 'गुजरात में गोत्र नहीं और मारवाड़ में छोत (छूत) नहीं' अर्थात् स्पर्शास्पर्श का विचार नहीं । विक्रम की चौदहवीं पंद्रहवीं शताब्दी तक तो उक्त प्रान्तों में वसनेवाली शाखाओं के कुलों के गोत्र विद्यमान थे, तब ही तो पन्द्रहवीं शताब्दी में हुये अंचलगच्छीय मेरुतुंगसूरि अपने द्वारा लिखित चलगच्छ-पट्टावली के द्वितीय भाग अनेक गोत्रों' के नाम और उनके कुल कहाँ २, किन २ नगर, ग्रामों में वसते थे, का वर्णन लिख सके हैं
।
मेरुतुंगसूरि द्वारा लिखी गई अञ्चलगच्छीय पट्टावली में उक्त प्राग्वाटज्ञातीय शाखाओं में निम्न गोत्रों की
विद्यमानता प्रकट की है ।
१३ गार्ग्य,
६ कुत्स, १५ सारंगिरि,
१ गोतम, २ सांस्कृत,
४ वत्स,
५ पाराशर,
७ वंदल, ८ वशिष्ठ,
६ उपमन्यु, १२ कौशिक,
१० पौल्कश, १६ हारीत, १७ शांडिल्य,
११ काश्यप,
१३ भारद्वाज, १४ कपिष्ठल,
१८ सनिकि,
अर्थात् अन्य गोत्र विलुप्त हो गये । विलुप्त गोत्रों में पुष्पायन, आग्नेय, पारायण, कारिस, वैश्यक, माढ़र प्रमुख हैं। उक्त गोत्र अधिकतर ब्राह्मणज्ञातीय हैं । अतः यह सिद्ध स्वभाव है कि उक्त गोत्र वाले प्राग्वाटज्ञातीय कुलों की उत्पत्ति ब्राह्मणवर्ग के उक्त गोत्रवाले कुलों में से हुई है ।
पद्मावती-परवाल
भिन्नमाल और उसके समीपवर्त्ती प्राग्वाट - प्रदेश पर वि० संवत् १९११ में जब भयंकर आक्रमण हुआ था, उस समय अपने जन-धन की रक्षा के हेतु इस शाखा के प्रायः अधिकांशतः कुल अपने स्थानों का त्याग करके मालवा प्रदेश में और राजस्थान के अन्य भागों में जा कर बसे थे । इस शाखा के कुलों को गोत्रजादेवी अंबिकादेवी है । नवविवाहिता स्त्री चार वर्ष पर्यन्त बिकादेवी का व्रत करती है और लाल कपड़े के उपर लक्ष्मी अथवा अधिकादेवी की आकृति छपवा कर उसका पूजन करती है । इस शाखा के कुल राजस्थान में बूँदी और कोटा राज्य के हाडोती, सपाड़ और ढूढ़ाड़पट्टों में, इन्दौर और आस-पास के नगरों में अधिकांशतः वसते . हैं। लगभग सौ वर्षों से कुछ कुल दक्षिण में बीड़शहर, परण्डानामक कस्बों में भी जा बसे हैं और वहीं व्यापारधंधा करते हैं। इस शाखा में भी जैन और वैष्णव दोनों मतों के माननेवाले कुल हैं और उनमें भोजन - व्यवहार