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________________ २६] :: प्राग्वाट - इतिहास :: सिंहावलोकन विक्रम संवत् पूर्व पाँचवीं शताब्दी से विक्रम संवत् आठवीं शताब्दी पर्यन्त जैनवर्ग की विभिन्न स्थितियाँ और उनका सिंहावलोकन [ प्रथम धर्म-क्रांति हिंसावाद के विरोध में भगवान् महावीर और गौतमबुद्ध ने अहिंसात्मक पद्धति पर प्रबल आन्दोलन खड़ा किया । भारत में वर्षों से जमी वर्णाश्रमपद्धति की जड़ हिल गई और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों में से कई एक नवीन ज्ञातियाँ और दल बन गये । महावीर ने श्रीचतुर्विधसंघ की स्थापना की और गौतमबुद्ध ने बौद्ध समाज की । यह क्रांति विक्रम संवत् के आरंभ तक अपने पूरे वेग से चलती रही है । इससे यह हुआ कि भारत की श्रार्यज्ञाति वेद, बौद्ध और जैन इन तीनों वर्गों में विशुद्धतः विभक्त हो गई। वर्णों में जहाँ वेद अथवा जैनमत का पालन व्यक्तिगत रहता आया था, अब कुलपरंपरागत हो गया । कुछ शताब्दियों तक तो किसी भी धर्म का पालन किसी भी वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञाति का कुल अथवा व्यक्ति करता रहा था, परन्तु पीछे से यह पद्धति बदल दी गई। जैनाचार्यों ने एवं बौद्ध भिक्षुकों ने अन्य मतों से आनेवाले कुलों एवं व्यक्तियों को दीक्षा देना प्रारंभ किया और उन कुलों को अपने कुल के अन्य परिवारों से, जिन्होंने धर्म नहीं बदला सामाजिक एवं धार्मिक सम्बन्धों का विच्छेदप्रायः करना पड़ा। बौद्धमत अपनी नैतिक कमजोरियों के कारण अधिक वर्षों तक टिक नहीं सका। जैन और वेद इन दोनों मतों में संघर्ष तेज-शिथिल प्रायः बना ही रहा। श्रीमाल, प्राग्वाट, ओसवाल, अग्रवाल, खण्डेलवाल, चितौड़ा, माहेश्वरी आदि अनेक वैश्यज्ञातियों का जन्म हुआ। बाहर से आयी हुई शकादि ज्ञातियों के कारण क्षत्रियों में भी कई एक नवीन ज्ञातियों का उद्भवन हुआ । ब्राह्मणवर्ग में भी कई एक नवीन गोत्रों, ज्ञातियों की स्थापना हुई और फिर उनमें भी उत्तम, मध्यम जैसी श्रेणियाँ स्थापित हुईं । शूद्रवर्ण भी इस प्रभाव से विमुक्त नहीं रहा । कालान्तर में जा कर यह हो गया कि उत्तम वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञाति का कोई परिवार अपने से नीचे के वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञा में उसका धर्म स्वीकार करके संमिलित हो सकता था, परन्तु नीचे का अपने से ऊँची स्थितिवाले वर्ण, वर्ग अथवा ज्ञात में उसका धर्म स्वीकार करने पर भी संमिलित नहीं हो सकता था । श्रावकवर्ग की उत्पत्ति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय, वैश्य कुलों से हुई है, जो कुल अधिकतर वेदमतानुयायी थे । जैनधर्म स्वीकार करने पर इस वर्ग में आनेवाले कुलों को श्रावकत्रत स्वीकार करना पड़ा । जहाँ ये कुल प्रधानतः कृषि करते थे, गौपालन करते और हर प्रकार का व्यापार करते थे, वहाँ जैन धार्मिक जीवन a refer पापवाले कर्मों के करने से बचना इनके लिये प्रमुख कर्त्तव्य रहा । ये अधिकतर व्यापार ही करने लगे और वह भी ऐसी वस्तुओं का कि जिनके उत्पादन में, संग्रह में, जिनकी प्राप्ति, क्रय और विक्रय में तथा अधिक समय तक संचित रखने में कम से कम पाप लगता हो । ये बड़े ही दयालु, परोपकारी,
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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