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खण्ड]
:: शत्रुञ्जयोद्धारक परमाहत भेष्ठि सं० जावड़शाह ::
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मधुमती पर मलेच्छों का और अपनी प्यारी प्रजा का पालन करने लगे। मधुमती की समृद्धता बढ़ती ही गई।
आक्रमण और जावड़शाह भारत के पश्चिम में जितने देश थे, वे मलेच्छों के आधीन थे। इन देशों के मलेच्छ सैन्य को कैदी बनाकर ले जाना बनाकर प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करते और यहाँ से धन, द्रव्य लूट कर ले जाते थे । मधुमती की प्रशंसा सुनकर वे एक वर्ष बड़ी संख्या में मधुमती पर चढ़कर समुद्रमार्ग से आये । जावड़शाह और उसके सैनिकों ने उनका खूब सामना किया, परन्तु अन्त में मलेच्छ संख्या में कई गुणे थे, युद्ध में विजयी हुये । मधुमती को खूब लूटा और अनेक दास-दासी कैद करके ले गये । जावड़शाह और सुशीला को भी वे लोग कैद करके ले गये । मलेच्छों के सम्राट ने जब जावड़शाह और सुशीला की अनेक कीर्ति और पराक्रम की कहानियाँ सुनी, उसने उनको राज्यसभा में बुलाकर उनका अच्छा सम्मान किया और मलेच्छ-देश में स्वतन्त्रता के साथ व्यापार और अपने धर्म का प्रचार करने की उनको आज्ञा दे दी। थोड़े ही दिनों में जावड़शाह ने अपनी धर्मनिष्ठा एवं व्यापार-कुशलता से मलेच्छ-देश में अपार प्रभाव जमा लिया और खूब धन उपार्जन करने लगा।
सम्राट् संप्रति ने जैनधर्मोपदेशकों को भारत के समस्त पास-पड़ोस के देशों में भेजकर जैनधर्म का खूब प्रचार करवाया था । तभी से जैन उपदेशकों का आना-जाना चीन, ब्रह्मा, आसाम, अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, ग्रीक, जैन उपदेशकों का आगमन अफ्रीका आदि प्रदेशों में होता रहता था। जावड़शाह ने वहाँ महावीर स्वामी का और जावड़शाह को स्वदेश जिनालय बनवाया भौर ठहरने तथा आहार-पानी की ठौर २ सुविधायें उत्पन्न लौटने की आज्ञा कर दी। फलतः मलेच्छ-देशों में जैन-उपदेशकों के आगमन को प्रोत्साहन मिला और संख्या-बंध आने लगे। एक वप चातुर्मास में एक जैन-उपदेशक ने जो शास्त्रज्ञ और प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता थे, अपने व्याख्यान में कहने लगे कि प्रसिद्ध महातीर्थ शत्रुजय का जैन-जनता से विच्छेद हो गया है, वहाँ पिशुन और मांसाहारी लोगों का प्राबल्य है, मन्दिरों की घोर आशातनायें हो रही हैं, जावड़शाह नाम के एक श्रेष्ठि से अब निकटभविष्य में ही उसका उद्धार होगा। श्रोतागणों में जावड़शाह भी बैठा था। जावड़शाह ने यह सुनकर प्रश्न किया कि वह जावड़शाह कौन है, जिसके हाथ से ऐसा महान् पुण्य का कार्य होगा। उन्होंने जावड़शाह के लक्षण देखकर कहा कि वह जावड़शाह और कोई नहीं, तुम स्वयं ही हो । समय आ रहा है कि मलेच्छ-सम्राट् तुम्हारे पर इतना प्रसन्न होगा कि जब तुम उससे स्वदेश लौटने की अपनी इच्छा प्रकट करोगे वह तुमको परिवार, धन, जन के साथ में लौटने की सहर्ष आज्ञा दे देगा।
उस ही चातुर्मास में मलेच्छ सम्राट् की अध्यक्षता में राज्यप्रांगण में अनेक मल्लों में बल-प्रतियोगिता हुई। उनमें मलेच्छ सम्राट का मल्ल सर्वजयी हुआ। सम्राट का मल्ल हर्ष और आनन्द के साथ जयध्वनि कर रहा था। जावड़शाह उसका यह गर्व सहन नहीं कर सका। वह अपने आसन से उठा और सम्राट के समक्ष आकर विजयी मल्ल से द्वंद्वयुद्ध करने की आज्ञा माँगी। सम्राट ने तुरन्त आज्ञा प्रदान कर दी। दर्शकगण सम्राट के बलशाली
और सर्वजयी मल्ल के सम्मुख जावड़शाह को बढ़ता देखकर आश्चर्य करने लगे। थोड़े ही समय में दोनों में उलटापलटी होने लगी, अन्त में जावड़शाह ने एक ऐसा दाव खेला कि सम्राट का मल्ल चारों-खाने-चित्त जा गिरा। जावड़शाह को विजयी हुआ देख कर दर्शकगण, स्वयं सम्राट और उसके सामन्त आदि अत्यन्त ही आश्चर्यचकित रह गये । सम्राट ने अति प्रसन्न होकर जावड़शाह से कोई वरदान मांगने का आग्रह किया । जैन-उपदेशक के वे शब्द