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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[प्रथम
घूमते थे, फिर भी पेट भरने जितना भी नहीं कमा पाते थे। परन्तु दोनों स्त्री-पुरुष अति संस्कारी और गुणी थे। संसार में आनेवाले सुख, दुःखों से पूर्व ही परिचित थे, अतः दारिद्रय उनको अधिक नहीं खलता था; परन्तु अपने घर आये अतिथि का उचित सत्कार करने योग्य भी वे नहीं रह गये थे-यह ही उनको अधिक खलता था । ____एक दिन दो जैनमुनि उनके घर आहार लेने के लिये आये । भावड़शाह और उनकी धर्ममुखा पत्नी सौभाग्यवती भावला ने अति ही भाव-भक्तिपूर्वक मुनियों को आहार-दान दिया। मुनि इनकी भाव-भक्ति देखकर सानोमा अति ही प्रसन्न हुए। उनमें से बड़े मुनि बोले,–'श्रेष्ठि ! अब तुम्हारे दःख और और उनकी आशीर्वादयुक्त दारिद्रय के दिन गये । समय आये वैसी ही पूर्व जैसी धन-समृद्धि और पुत्ररत्न की भविष्यवाणी
प्राप्ति होगी। कुछ दिनों पश्चात् बाजार में एक लक्षणवंती घोड़ी बिकने को आवेगी, उसको खरीद लेना । उस घोड़ी के घर में आते ही धन-धान्य की वृद्धि दिन-दूनी और रात-चौगुणी होने लगेगी।' इतना कह कर मुनिराज चले गये। दोनों स्त्री-पुरुष मुनिराज की भविष्यवाणी सुनकर अति ही प्रसन्न हुये और लक्षणवंती घोड़ी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
कुछ ही दिनों पथात् एक अश्व-व्यापारी एक लक्षणवंती घोड़ी लेकर कांपिल्यपुर के बाजार में बेचने को आया। थोड़ी का मूल्य सौ स्वर्ण-मुद्रायें सुनकर उसको कोई नहीं खरीद रहा था। भावड़शाह को ज्योंही घोड़ी नीम के आगमन की सूचना मिली, वे तुरन्त वहाँ पहुंचे और सौ स्वर्ण-मुद्रायें देकर घोड़ी दना और उससे बहुमूल्य को खरीद लिया । एकत्रित लोग भावड़शाह के साहस को देखकर दंग रह गये । वत्स की प्राप्ति तथा कापि- भावड़शाह घोड़ी को लेकर प्रसन्नचित्त घर आये और उसका पूजन किया और घर में ल्यपुर-नरेश को उसे बेचना अच्छे स्थान पर उसको बाँधा। दोनों स्त्री-पुरुष घोड़ी की अति सेवा-सुश्रुषा करते
और उसे तनिक भी भूख-प्यास का कष्ट नहीं होने देते । घोड़ी गर्भवती थी । समय पूर्ण होने पर उसने एक अश्वरत्न को जन्म दिया । घोड़ी जिस दिन से भावड़शाह के घर में आई थी, भावड़शाह का व्यापार खूब चलने लगा और अत्यधिक लाभ होने लगा। फिर अश्वरत्न के जन्म-दिवस से तो भावड़शाह को हर व्यापार और कार्य में लाभ ही लाभ होने लगा और थोड़े ही समय में पूर्व-से श्रीमंत एवं वैभवपति हो गये । नवकर (नौकर), चारकर (चाकर), दास-दासियों, मुनिमों का ठाट लग गया। अश्वरन जब तीन वर्षे का हुआ तो उसको कांपिल्यपुरनरेश तपनराज ने तीन लक्ष स्वर्ण-मुद्राओं में खरीद लिया और भावड़शाह का अति सम्मान किया तथा अनेक रहने, करने सम्बन्धी अनुकूलतायें प्रदान की।
___ भावड़शाह के पास अब अपार धन हो गया था । उसने घोड़ों का व्यवसाय खूब जोरों से प्रारंभ किया । एक ही ज्ञाति की लक्षणवंती घोड़ियाँ खरीदीं। एक ज्ञाति के लक्षणवान् अश्वकिशोरों की संख्या बढ़ाने का भावड़शाह का सतत्
प्रयत्न रहा । कुछ ही वर्षों में भावड़शाह के पास एक ज्ञाति के अनेक अश्व लक्षणवान घोड़ों का व्यापार और एक जाति के अनेक घोडों को अश्वकिशोरों की अच्छी संख्या हो गई । खरीददार कोई न मिल रहा था, भावड़शाह को सार्वभौम सम्राट विक्रमा- यह चिंता होने लगी। उस समय अवंती में पराक्रमी विक्रमादित्य राज्य कर रहा था । दित्य को भेंट करना और भावड़शाह ने विचार किया कि इन सर्व एक ही ज्ञाति के और अधिक मूल्य के मधुमतमामार का भात घोडों को एक साथ खरीदने वाला, अतिरिक्त सम्राट विक्रमादित्य के और कोई नहीं