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________________ खण्ड ] :: भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् :: [ ७ और उनके उत्तराधिकारी जैनधर्मालम्बी थे । इनके पश्चात् मगध की सत्ता शिशुनागवंश और नन्दवंश के करों में रही । नन्दवंश में छोटे बड़े नव राजा हुये, जिनको नवनन्द कहा जाता है। ये जैनधर्मी नहीं भी रहे हों, फिर भी ये उसके द्वेषी एवं विरोधक तो नहीं थे । पश्चात् मौर्य सम्राटों का समय आता है । प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त तो जैनधर्म का महान सेवक हुआ है । उसका उत्तराधिकारी बिन्दुसार भी जैन था । तत्पश्चात् वह बौद्धमतानुयायी बना और उसने बौद्धमत का प्रचार सम्पूर्ण भारत और भारत के पास-पड़ौस के प्रदेशों में बौद्ध भिक्षुकों को भेज कर किया था । अशोक का पुत्र कुणाल था, कुणाल की विमाता ने उसको राज्यसिंहासन पर बैठने के लिये अयोग्य बनाने की दृष्टि से षड़यन्त्र रच कर उसको अन्धा बना दिया था । अतः अशोक के पश्चात् कुणाल का पुत्र प्रियदर्शिन जो अशोक का पौत्र था, सम्राट् बना । जैन ग्रंथों में प्रियदर्शिन को सम्राट् संप्रति के नाम से उल्लिखित किया है। अशोक के समान सम्राट् संप्रति ने भी जैनधर्म का प्रचार समस्त भारत एवं पास-पड़ौस प्रदेशों में जैनधर्म के व्रती साधुओं' को, उपदेशकों को भेज कर खूब दूर २ तक करवाया था । उसने लाखों जिन-प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाईं थीं और अनेक जैन- मन्दिर बनवाये थे । संप्रति के पश्चात्वर्ती मगध सम्राट् निर्बल रहे और उनकी सत्ता मगध के थोड़े से क्षेत्र पर ही रह गई थी । अर्थ यह है कि ई० सन् पूर्व घडी शताब्दी से ई० पूर्व द्वितीय शताब्दी तक समस्त भारत में जैन अथवा बौद्धमत की ही प्रमुखता रही । शुंगवंश ने अपनी राजधानी मगध से हटा कर अवंती को बनाया, पश्चात् क्षहराटवंश और गुप्तवंश की भी, यही राजधानी रही । शुंगवंश के प्रथम सम्राट् पुष्यमित्र, अग्निमित्र आदि ने जैनधर्म और उनके अनुयायियों के ऊपर भारी अत्याचार बलात्कार किये, जिनको यहाँ लिखने का उद्देश्य नहीं है । उनके अत्याचारों से जैनधर्म की प्रसारगति अवश्य धीमी पड़ गई, परन्तु लोगों की श्रद्धा जैनधर्म के प्रति वैसी ही अक्षुण्ण रही। गुप्तवंश के सम्राट् वैदमतानुयायी थे; फिर भी वे सदा जैनधर्म और जैनाचार्यों का पूर्ण मान करते रहे । जैनधर्म की प्रगति से कभी उनको जलन और ईर्ष्या नहीं हुई । क्षहराटवंश तो जैनधर्मी ही था । कलिंगपति चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल भी महान् प्रतापी जैन सम्राट् हुआ है। उसने भी जैनधर्म की महान् सेवा की है; जिसके संस्मरण में उसकी उदयगिरि और खण्डगिरि की ज्वलंत गुफाओं की कलाकृति, हाथीगुफा का लेख आज भी विद्यमान है । यह सब लिखने का तात्पर्य इतना ही हैं कि ई० सन् पूर्व बडी शताब्दी से लेकर ई० सन् पूर्व द्वितीय शताब्दी तक जैनधर्म और बौद्धधर्म के प्रचार के अनुकूल राजस्थिति रही और उत्तर भारत में इन दोनों मतों को पूर्ण जनमत और राजाश्रय प्राप्त होता रहा । परन्तु कुछ ही समय पश्चात् बौद्धमत अपनी नैतिक कमजोरियों के कारण भारत से बाहर की ओर खिसकना प्रारम्भ हो गया था। जैनमत अपने उसी शुद्ध एवं शाश्वत रूप में भारत में अधिकाधिक सुदृढ़ बनता जा रहा था; चाहे वैदमत के पुनर्जागरण पर जैनधर्मानुयायियों की संख्या बढ़ने से रुक भले गई हो । ई० सन् पूर्व डी -शताब्दी से जैसा पूर्व लिखा जा चुका है भारत पर बाहरी ज्ञातियों एवं बाहरी सम्राटों के आक्रमण प्रारंभ हुए थे, जो गुप्तवंश के राज्यकाल के प्रारम्भ तक होते रहे थे । इन ६०० सौ वर्षों के १ वे साधु, जो साधु के समान जीवन व्यतीत करते हैं, परन्तु आहार और विहार में वे साधुओं के समान पद-पद पर बन्धे नहीं होते हैं, जिनको हम आज के कुलगुरु कह सकते हैं अवती कहे गये हैं।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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