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गुरु चिंतन
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जो च्युत न हो, स्व का आश्रय छोड़े नहीं और पर का आश्रय लेवें नहीं, यही उपयोग का स्वरूप है।
१०. टीकार्थ - जिसे लिंग में अर्थात् उपयोग नामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भांति उपराग (मलिनता, विकार) नहीं है, वह अलिंगग्रहण है । इसप्रकार आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । सारांश - त्रिकाली द्रव्य व गुण की शुद्धता की भांति ज्ञान की पर्याय भी शुद्ध है, उसमें मलिनता नहीं है। स्वोन्मुखी उपयोग - शुद्धोपयोग में विकार मलिनता नहीं है। अशुद्धोपयोग को उपयोग ही नहीं कहते ।
११. टीकार्थ - लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्गलिक कर्म का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश - उपयोग द्रव्यकर्म को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि उसमें मलिनता नहीं है। शुद्धोपयोग को जड़कर्म के साथ निमित्त नैमित्तिक संबंध भी नहीं है ।
१२. टीकार्थ - जिसे लिंग के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है, सो अलिंगग्रहण है । इस प्रकार आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। सारांश- आत्मा स्वस्वरूप का भोक्ता है । इन्द्रिय विषयों का आत्मा में अभाव है, उनको वह कैसे भोगे ? आत्मा पर विषयों का नहीं परन्तु अपने ज्ञान, दर्शन, वीर्य, आनंद और शांति आदि का उपभोक्ता है।
वह
१३. टीकार्थ - लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवतत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है, अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा शुक्र और आर्तव का अनुविधायी ( अनुसार होनेवाला) नहीं है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । सारांश- आत्मा जड़ द्रव्यप्राणों से जीवित नहीं रहता है। आत्मा चेतन्य भावप्राण से जीवित रहता है। आत्मा का जीवत्व धारणकर रखना द्रव्यप्राणों का अथवा मातापिता के रज- वीर्य का अनुविधायी नहीं है।