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________________ 50 गुरुचिंतन की विवक्षा का ज्ञान भी होना चाहिए, तभी दैवनय का ज्ञान सच्चा कहा जायेगा।" पुरुषार्थ से मुक्ति हुई - यह न कहकर कर्मों के टलने से मुक्ति हुई अथवा दैव से मुक्ति हुई - यह कहना दैवनय है, परन्तु उसमें भी चैतन्यस्वभाव के पुरुषार्थ का स्वीकार तो साथ में है ही। . जिस जीव को स्वभावसन्मुखता का पुरुषार्थ होता है, उसका भाग्य भी ऐसा ही होता है कि कर्म भी टल जाते है, कर्मों को टालने के लिए अलग से पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता। इसी स्थिति में यह अपेक्षा ग्रहण करना कि कर्मों के टलने से मुक्ति हुई - दैवनय का कथन है। ४. यद्यपि यहाँ मुक्ति रूपी कार्य की चर्चा है तथापि बाह्य संयोगवियोग के बारे में भी इन नयों का प्रयोग समझना चाहिए। बाह्य संयोगों की प्राप्ति के लिए किए गए योग-उपयोगत्मक प्रयत्न को व्यवहार से पुरुषार्थ कहते है परन्तु उससे इष्ट संयोग की प्राप्ति होने का कोई नियम नहीं है। संयोगों की प्राप्ति उदयाधीन हैं। पापोदय में चाह व्यर्थ है, नहीं चाहने पर भी हो। पुण्योदय में चाह व्यर्थ है, सहजपने मनवांछित हो।। उक्त पंक्तियों में संयोग-वियोग में कर्मोदय की प्रधानता बताई गई ५. बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग में उपादान कारण तो वे उन पदार्थों की तत्समय की योग्यता ही है अतः पुरुषार्थ भी उन पदार्थों का उनमें ही है। हमारा प्रयत्न उन कार्यों में निमित्त मात्र है जिसे उपचार से पुरुषार्थ कहते हैं। हम तो मात्र अपने प्रयत्नरूप कार्य का विकल्पात्मक पुरुषार्थ करते हैं। ६. पद्मपुराण में समागत शम्बूकुमार द्वारा सूर्य हास खड्ग की प्राप्ति के लिए किये गए प्रयत्न की घटना का वर्णन है। मन्त्र सिद्धि की शम्बूकुमार ने, परन्तु उसका प्रयत्न निरर्थक हुआ, किन्तु लक्ष्मण
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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