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गुरुचिंतन
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३. किसी भी वस्तु का मूल स्वभाव बदला नहीं जा सकता। चेतन कभी जड़ नहीं हो सकता, जड़ कभी चेतन नहीं हो सकता, भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकता, अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकता। बुन्देलखण्ड की एक कहावत प्रसिद्ध है - जी को जाने स्वभाव जाय ना जी से, नीम न मीठी होय खाओ गुड़ घी से।
४. मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि होकर सिद्ध बन सकता है, यह अस्वभाव धर्म का ही स्वरूप है।
५. अस्वभाव अर्थात् संस्कारों की सार्थकता करने वाला धर्म, यह भी योग्यतारूप होने से स्वभाव रूप है फिर भी त्रिकाली स्वभाव से भिन्न बताने के लिए इसे अस्वभाव धर्म कहा गया है। अर्थात् यह अस्वभाव नामक स्वभाव है।
६. एक द्रव्य पर किसी अन्य द्रव्य का प्रभाव पड़ने की बात तो दूर रही, द्रव्य का मूल स्वभाव अपनी मलिन और निर्मल पर्यायों से भी प्रभावित नहीं होता, यही स्वभाव की योग्यता है।
७. पर्यायों को संस्कारित किया जा सकता है - इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें परिवर्तन किया जा सकता है, पर्यायें तो अपने सुनिश्चित क्रम में ही होती हैं, जो पर्याय जब होती है तब उसके अनुरूप बाह्य प्रयत्न भी होता है जिसे संस्कार कहा जा सकता है।
(३०-३१)
कालनय और अकालनय "आत्मद्रव्य कालनय से गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आग्रफल के समान समय पर आधार रखनेवाली सिद्धिवाला है और अकालनय से कृत्रिम गर्मी में पकाये गये आग्रफल के समान समय पर आधार नहीं रखनेवाली सिद्धिवाला है।"