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गुरुचिंतन (६) अवक्तव्यनय __ "लोहमय तथा अलोहमय, डोरी व धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी व धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संघान-अवस्था में रहे हुए तथा संघान-अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलोक्ष्योन्मुख ऐसे पहले बाण की भांति आत्मद्रव्य अवक्तव्य नय से युगपत् स्वपरद्रव्य -क्षेत्र-काल-भाव से अवक्तव्य
अवक्तव्य का स्वरूप निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है।
१. सभी धर्मों का कथन एक साथ नहीं किया जा सकता इस अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य रूप है।
२. यद्यपि इसमें वाणी की कमजोरी होने से वाणी की अपेक्षा आती है, परन्तु सम्पूर्ण रूप से कथन नहीं किया जा सकता - ऐसी योग्यता वस्तु में है, जिसे अवक्तव्य द्वारा जाना/कहा जा सकता है।
३. वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य कहना भी स्व-वचन बाधित है अर्थात् अवक्तव्य रूप योग्यता को तो कहा जा रहा है, इसलिए वह कथंचित् अवक्तव्य है सर्वथा अवक्तव्य नहीं। अनेक धर्मों का कथन क्रमशः किया जाता है अतः वस्तु कथंचित् वक्तव्यरूप भी है।
४. तीर्थंकरों के गुणों का वर्णन अथवा आचार्यों, ज्ञानियों के उपकार का वर्णन असंभव है - यह कथन भी अवक्तव्य नय का प्रयोग
५. बालक यदि कोई गलती करे तो गम्भीर प्रकृति के मातापिता उसे डाँटने के बदले मौन रहते हैं। समझदार बालक उनके मौन से ही उनकी नाराजगी समझ लेता है और अपनी गलती महसूस कर लेता है।
६. प्रारम्भ के तीन भंगों द्वारा वस्तु स्वरूप कहा जा रहा है,