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गुरु चिंतन भेदरूप से जानना वह द्रव्यश्रुतज्ञान है अथवा भावश्रुत तो अनुभव रूप है तथा द्रव्यश्रुत शब्द-विस्तार तथा विकल्परूप है।
गाथा-१६ (५०) साधु पुरुष को दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र का ही सेवन करना चाहिए; क्योंकि ये तीनों आत्मा ही हैं, अन्य नहीं हैं अर्थात् आत्मा से भिन्न नहीं हैं। आत्मा के अनुभव में दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों गर्भित हैं।
(५१) प्रमाणदृष्टि में वस्तु सदा द्रव्य-पर्यायरूप है; परन्तु शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से आत्मा अभेदरूप एक या एकाकाररूप है तथा व्यवहार दृष्टि में भेदरूप अनेक या अनेकाकाररूप है। शुद्धद्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में आत्मा एकाकार अनुभवरूप है - इस द्रव्यदृष्टि में पर्यायार्थिक दृष्टि गौण होती है।
- प्रस्तुति : डॉ. उत्तमचन्द जैन, छिन्दवाड़ा