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मृत्यु महोत्सव
सुखं दुःखं सदा वेत्ति, देहस्थश्च स्वयं व्रजेत् । मृत्यु - -भीतिस्तदा कस्य, जायते परमार्थतः ॥९॥
अन्वयार्थ - ( देहस्थः) देह में स्थित जीव ( सुखं दुःखं) सुख-दुःख को ( वेत्ति ) जानता है (स्वयं) स्वयं (व्रजेत्) प्रयाण करता है (परमार्थतः) परमार्थ से ( मृत्यु-भीतिः) मृत्यु का भय (कस्य ) किसे (जायते) हो सकता है ?
(तदा) तब
(सदा) सदा (च) और
देह - निवासी चेतन अपने, सुख-दुख को देखे-जाने और किसी दिन इसी देह से स्वयं निकलने की ठाने । स्वेच्छा से जानेवाला क्या, कभी कहीं घबराता है ? न सल्लेखनाधारी नर को, यम कंपित कर पाता है ॥
अन्तर्ध्वनि : शरीरधारी जीव सदैव सुख-दुख का वेदन करता है और आयु पूर्ण होने पर स्वतः शरीर को छोड़ जाता है । ऐसे में यथार्थतः मृत्यु-भय किसे हो सकता है ? अर्थात् जब जीव स्वयं स्थानान्तरित होता है, तब भय का प्रश्न ही कहाँ उठता है ?
Essence : Throughout the life, the soul experiences pleasures and pain, ultimately it itself discards the body. Actually who would then fear death, if he knew the fact that he himself is taking leave of his body?
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