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________________ जैन शतक - - ६. श्री जमनालाल जैन, साहित्यरत्न, वर्धा लिखते हैं - ___ "महाकवि बनारसीदासजी ने 'नाटक समयसार' में सुकवि के लिए जिन गुणों की ओर संकेत किया है वे सब महाकवि भूधरदासजी में विद्यमान थे। सिद्धान्त के प्रतिकूल उनकी लेखनी ने एक शब्द भी नहीं लिखा। जैन शतक' उनकी एक छोटीसी परन्तु प्रौढ़ कलाकृति है । कवि की आत्मा, उसका हृदय, उसमें शुद्ध एवं स्पष्ट रूप से व्यक्त हो उठा है। किसी भी कवित्त या वर्णन को उठा लीजिए, एक चित्र या दृश्य अपने परिपूर्ण रूप में सम्मुख आ जाता है । जीवन की बाह्याभ्यन्तर दशाओं, मानवोचित कर्तव्यों को समझने में प्रस्तुत रचना बहुत काम की चीज है।" ७. बाबू शिखरचन्द जैन लिखते हैं - "सुकवि भूधरदास क्या भाव, क्या भाषा, क्या मुहावरों का प्रयोग एवं भाषा का प्रवाह, क्या विषय-प्रतिपादन की शैली, क्या सूक्तियों एवं कहावतों का प्रयोग सब कवितोचित गुणों में अन्य अनेक जैन कवियों में उचित स्थान पाने के योग्य हैं। जैन शतक' में उनकी प्रतिभा का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है । .... कवित्त और सवैये तो बड़े ही सरस, प्रवाहपूर्ण, लोकोक्ति-समाविष्ट एवं जोरदार हुये हैं। कुछ विषय जैसे वृद्धावस्था, काल-सामर्थ्य, संसार-असारता तथा दिगम्बर मुनि-तपस्या-वर्णन आदि तो उनसे बहुत ही अच्छे बन पड़े हैं। जिस विषय को वे उठा लेते हैं, जोरदार भाषा में उसका अन्त तक निर्वाह करते चले जाते हैं । कहीं शिथिलतां दृष्टिगोचर नहीं होती। ...... कवियों में यदि इसे (सुकवि भूधरदास को) लोकोक्ति और रूपक अलंकारों का कवि कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति न होगी, क्योंकि लोकोक्ति और रूपकों का इसने बेखटके (Freely) प्रयोग किया है।" ८. जैन-साहित्य के महान अनुसंधाता श्री अगरचन्द नाहटा लिखते हैं - "हिन्दी के जैन-सुकवियों में कवि भूधरदासजी का विशिष्ट स्थान है।" ९. श्री माणिकचन्द जैन, बी.ए.,बी.टी. लिखते हैं - "हिन्दी-जैन-कवियों में कवि भूधरदास का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। मैं भैया भगवतीदासजी, पांडे रूपचन्दजी और इनको समकक्ष कवि मानता हूँ। महाकवि बनारसीदासजी के बाद इन्हीं कवियों का गौरवपूर्ण स्थान है। कवि भूधरदासजी आध्यात्मिक पुरुष थे। संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता और भोगों की ६. जैन शतक, पृष्ठ ८ व ११ (प्रकाशक - दि० जैन पुस्तकालय, सूरत, वी.नि.सं. २४७३) ७. जैन शतक, पृष्ठ ११ (प्रकाशक - दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी.नि.सं. २४७३) ८. वीरवाणी (पाक्षिक), जयपुर, १८ अक्टूबर, १९६२, पृष्ठ ३३
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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