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जैन शतक
परिशिष्ट-१ महाकवि भूधरदास और उनका 'जैन शतक
(विद्वानों के अभिमत) १. तत्कालीन विद्वान् महाकवि पं० दौलतराम कासलीवाल लिखते हैं --
"भूधरमल जिनधर्मी ठीक। रहै स्याहगंज में तहकीक ॥
जिन सुमिरन पूजा परवीन। दिन प्रति करै असुभ को छीन॥" अर्थात् पं. भूधरदासजी सच्चे जिनधर्मी थे, शाहगंज में निवास करते थे और प्रतिदिन कुशलतापूर्वक जिनेन्द्रदेव का स्मरण-पूजन करते हुए अपने अशुभ कर्मों को क्षीण करते थे। २. तत्कालीन प्रसिद्ध साधर्मी भाई ब्र० रायमल्ल लिखते हैं -
"ऊहाँ स्याहगंज में भूधरमल्ल साहूकार व्याकरण का पाठी घणां जैन के शास्त्रां का पारगामी तासं मिले । ... स्याहगंज के चैतालै भूधरमल्ल शास्त्र का व्याख्यान करै और सौ दोय सै साधर्मी भाई ता सहित ...२." ३. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य लिखते हैं - __ "हिन्दी भाषा के जैन कवियों में महाकवि भूधरदास का नाम उल्लेखनीय है । कवि आगरा-निवासी था और इसकी जाति खण्डेलवाल थी। इससे अधिक इनका परिचय प्राप्त नहीं होता है। इनकी रचनाओं के अवलोकन से यह अवश्य ज्ञात होता है कि कवि श्रद्धालु और धर्मात्मा था। कविता करने का अच्छा अभ्यास था। इनकी रचनाओं से इनका समय वि. सं. की १८वीं शती (१७८१) सिद्ध होता है। जैन शतक में १०७ कवित्त, दोहे, सवैये और छप्पय हैं । कवि ने वैराग्य-जीवन के विकास के लिए इस रचना का प्रणयन किया है। वृद्धावस्था, संसार की असारता, काल-सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियों की तपस्या, आशा-तृष्णा की नग्नता आदि विषयों का निरूपण बड़े ही अद्भुत ढंग से किया है । कवि जिस तथ्य का प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है। नीरस और गूढ़ विषयों का निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शैली में किया गया है। कल्पना, भावना और विचारों का समन्वय सन्तुलित रूप में हुआ है।"
१. पुण्यास्रवकथाकोश-भाषा, अन्तिम प्रशस्ति, छन्द १५ २. जीवन-पत्रिका (देखो - पं. टोडरमल : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व, परिशिष्ट १, पृष्ठ ३३४) ३. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-४, पृष्ठ २७२-२७५