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जैन शतक
५८. गुजराती भाषा में शिक्षा (करिखा)
ज्ञानमय रूप रूड़ो सदा साततौ, ओलखै क्यौं न सुखपिंड भोला । बेगली देहथी नेह तूं शूं करै, एहनी टेव जो मेह ओला ॥ मेरने मान भवदुक्ख पाम्या पछी, चैन लाध्यो नथी एक तोला । वळी दुख वृच्छनो बीज बावै अने, आपथी आपनै आप भोला ॥ ८९ ॥ *
हे भोले भाई ! तुम सुख के पिण्ड हो। तुम्हारा रूप ज्ञानमय है, सुन्दर है, शाश्वत ( सतत ) है। तुम उसे पहिचानते क्यों नहीं हो? तथा शरीर तुमसे भिन्न है, पराया है, तुम उससे राग क्यों करते हो? उसका स्वरूप तो बरसात के ओले की भाँति क्षणभंगुर है।
हे भाई! इस राग के कारण तुमने मेरु पर्वत के समान अपार दुःख झेले हैं, कभी एक तोला भी सुख प्राप्त नहीं किया, फिर भी तुम पुन: वही दुःखरूपी वृक्ष का बीज बो रहे हो और स्वयं ही अपने आपको भूल रहे हो ।
५९. द्रव्यलिंगी मुनि (मत्तगयन्द सवैया)
शीत सहैं तन धूप दहैं, तरुहेट रहैं करुना उर आनैं । झूठ कहैं न अदत्त गहैं, वनिता न चहैं लव लोभ न जानें ॥ मौन वहैं पढ़ि भेद लहैं, नहिं नेम जहैं व्रतरीति पिछानेँ । यौं निबहैं पर मोख नहीं, विन ज्ञान यहै जिन वीर बखानें ॥ ९० ॥
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द्रव्यलिंगी मुनि यद्यपि शीत ऋतु में नदी तट पर रहकर सर्दी सहन करता है, गर्मी में पर्वत पर जाकर शरीर जलाता है, और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे रहकर बरसात भी सहन करता है; अपने हृदय में करुणाभाव धारण करता है, झूठ नहीं बोलता है, चोरी नहीं करता है, कुशील सेवन की अभिलाषा नहीं करता है, और किंचित् लोभ भी नहीं रखता है; मौन धारण करता है, शास्त्र पढ़कर उनके अर्थ भी जान लेता है, कभी प्रतिज्ञा भंग नहीं करता, व्रत करने की विधि को समझता है; तथापि भगवान महावीर कहते हैं कि उसे आत्मज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता ।
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'कुछ प्रतियों में यह पद नहीं मिलता।