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जैन शतक
(मत्तगयन्द सवैया) अन्तक सौं न छूटै निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजै। चाहत है चित मैं नित ही सुख, होय न लाभ मनोरथ पूजै॥ तौ पन मूढ़ बँध्यौ भय आस, वृथा बहु दुःखदवानल भूजै। छोड़ विचच्छन ये जड़ लच्छन, धीरज धारि सुखी किन हूजै॥७४॥
यह निश्चित है कि मृत्यु से बचा नहीं जा सकता है, तथापि अज्ञानी प्राणी निरन्तर भयभीत बना रहता है । वह सदा सुखसामग्री की इच्छा करता रहता है, किन्तु न तो उनकी प्राप्ति होती है और न कभी उसके मनोरथ पूरे होते हैं । परन्तु फिर भी वह भय और आशा से बँधा रहता है और व्यर्थ ही दुःखरूपी प्रबल आग में जलता रहता है।
हे विचक्षण ! तुम इन मूर्खता के लक्षणों को त्याग कर एवं धैर्य धारण कर सुखी क्यों नहीं हो जाते हो?
विशेष :-इसी प्रकार का भाव आचार्य समन्तभद्र ने भी स्वयंभू स्तोत्र, छन्द ३४ में प्रकट किया है।
४५. धैर्य-शिक्षा
(मत्तगयन्द सवैया) जो धनलाभ लिलार लिख्यौ, लघु दीरघ सुक्रत के अनुसारै। सो लहिहै कछू फेर नहीं, मरुदेश के ढेर सुमेर सिधारै ॥ घाट न बाढ़ कहीं वह होय, कहा कर आवत सोच-विचारै। कूप किधौं भर सागर मैं नर, गागर मान मिलै जल सारै ॥७५॥
थोड़े या बहुत पुण्य के अनुसार जितना धनलाभ भाग्य में लिखा होता है, व्यक्ति को उतना ही मिलता है - इसमें कोई सन्देह नहीं, फिर चाहे वह मारवाड़ के टीलों पर रहे और चाहे सुमेरु पर्वत पर चला जाए। वह कितना ही सोचविचार क्यों न कर ले, परन्तु उससे वह किंचित् भी कम या अधिक नहीं हो सकता।
अरे भाई ! कुए में भरो या सागर में, जल तो सर्वत्र उतना ही मिलता है, जितनी बड़ी गागर (बर्तन) होती है।