________________
जैन शतक
४२. धैर्य-धारण का उपदेश
(कवित्त मनहर) आयो है अचानक भयानक असाता कर्म,
ताके दूर करिवे को बलि कौन अह रे। जे जे मन भाये ते कमाये पूर्व पाप आप,
तेई अब आये निज उदैकाल लह रे॥ एरे मेरे वीर ! काहे होत है अधीर यामैं,
कोउ को न सीर तू अकेलौ आप सह रे। . भय दिलगीर कछू पीर न विनसि जाय,
ताही ते सयाने ! तू तमासगीर रह रे ॥७१॥ हे भाई ! यदि तुम्हारे ऊपर भयानक असाता कर्म का अचानक उदय आ गया है तो तुम इससे अधीर क्यों होते हो, क्योंकि अब इसे टालने में कोई समर्थ नहीं है। तुमने स्वयं ने अपनी इच्छानुसार प्रवर्तन करके जो-जो पाप पहले कमाये थे, वे ही अब अपना उदयकाल आने पर तुम्हारे पास आये हैं। तुम्हारे कर्मों के इस फल को अब दूसरा कोई नहीं बाँट सकता, तुम्हें स्वयं अकेले ही भोगना होगा। अत: अब चिंतित या उदास (दुःखी) होने से कोई लाभ नहीं है। चिन्ता करने से या उदास रहने से दु:ख मिट नहीं जावेगा।
अत: हे मेरे सयाने भाई! तुम ज्ञाता-द्रष्टा बने रहो - तमाशा देखने वाले बने रहो।
४३. होनहार दुर्निवार
... (कवित्त मनहर) कैसे कैसे बली भूप भू पर विख्यात भये,
वैरीकल का नेक भहीं के विकार सौं। लंघे गिरि-सायर दिवायर-से दिएँ जिनों,
. कायर किये हैं भट कोटिन हुँकार सौं॥ ऐसे महामानी मौत आये हू न हार मामी,
क्यों ही उत्तरे न कभी मान के पहार साँ। देव सौ न हारे पुनि दानो सौं न हारे और,......
काहू सौं न हारे एक हारे होनहार साँ॥७२॥