________________
जैन शतक
वे विचलित नहीं हुये । परिणामस्वरूप मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । उधर राजा ब्रह्मदत्त को घर जाने के बाद भयंकर कोढ़ हो गया। उसके शरीर से दुर्गंध आने लगी। सबने उसका साथ छोड़ दिया। वह मरकर सातवें नरक में गया । नरक से निकलने के बाद महादुर्गन्ध शरीरवाली धीवर कन्या हुआ और उसके बाद भी अनेक जन्मों में उसने वचनातीत कष्टों को सहन किया ।
५०
६. चोरी : सिंहपुर नगर में एक शिवभूति नाम का पुरोहित था । यद्यपि वह बड़ा चोर और बेईमान था, पर उसने मायाचारी से अपने संबंध में यह प्रकट कर रखा था कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ। वह कहता था कि देखो, मैं अपने पास सदा यह चाकू रखता हूँ, ताकि झूठ बोलूँ तो तुरन्त अपनी जीभ काट डालूँ । इससे अनेक भोले लोग उसे 'सत्यघोष' ही कहने-समझने लगे । यद्यपि अनेक लोग इस शिवभूति पुरोहित के चक्कर में आकर ठगाये जा चुके थे, पर कोई उसे झूठा नहीं सिद्ध कर पाता था। एक बार एक समुद्रदत्त नामक वणिक विदेश जाते समय अपने पाँच बहुमूल्य रत्नों को उस शिवभूति के पास रखकर गया और वहाँ से लौटकर उसने अपने रत्न वापस माँगे । हमेशा की तरह इस बार भी शिवभूति ने साफ-साफ इनकार कर दिया। बेचारा समुद्रदत्त दुःखी होकर रोता हुआ इधर-उधर घूमने लगा । आखिरकार रानी की कुशलता से शिवभूति का अपराध सामने आ गया। दण्डस्वरूप उसे तीन सजाएँ सुनाई गईं कि या तो वह अपना सर्वस्व देकर देश से बाहर चला जावे अथवा पहलवान के ३२ मुक्के सहन करे अथवा तीन परात गोबर खाए। उसने सर्वप्रथम तीन परात गोबर खाना स्वीकार किया । पर नहीं खा सका। फिर उसने पहलवान के ३२ मुक्के खाना स्वीकार किया, पर वे भी उससे सहन नहीं हुए और अन्त में उसे अपना सर्वस्व देकर नगर से बाहर जाना पड़ा।
७. परस्त्री - सेवन : इसमें रावण की कथा सर्वजनप्रसिद्ध ही है, अतः उसे यहाँ नहीं लिखते हैं । रावण सीता के प्रति दुर्भाव रखने के कारण ही नरक गया । (दोहा)
पाप नाम नरपति करै, नरक नगर मैं राज । तिन पठये पायक विसन, निजपुर वसती काज ॥ ६२ ॥ एक पाप नाम का राजा है जो नरकरूपी नगर में राज्य करता है और उसी ने अपने नगर की समृद्धि के लिए इस लोक में अपने सप्त व्यसनरूपी दूत छोड़ रखे हैं ।