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जैन शतक
___ जो जगत् की समस्त वस्तुओं को अपनी हथेली के समान प्रत्यक्ष या स्पष्ट रूप से जानता हो, संसारी प्राणियों को संसार-सागर से पार उतारता हो, जिसके वचन पूर्वापर-विरोध से रहित एवं प्राणिमात्र के हितकारक हों और जिसमें गुण तो अनन्त हों, पर दोष (क्षुधादि अठारह दोष या राग-द्वेषादि) किंचित् भी न हो; वही सच्चा देव है। फिर चाहे वह नाम से माधव हो, महेश हो, ब्रह्मा हो या बुद्ध हो। मैं तो जिसमें उक्त सर्वज्ञता, हितोपदेशिता और वीतरागता - ये गुण पाये जाते हों, उस देव को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
२४. यज्ञ में हिंसा का निषेध —
(कवित्त मनहर) . कहै पशु दीन सुन यज्ञ के करैया मोहि,
होमत हुताशन मैं कौन सी बड़ाई है। स्वर्गसुख मैं न चहाँ 'देहु मुझे' यौँ न कहौं,
घास खाय रहौं मेरे यही मनभाई है। जो तू यह जानत है वेद यौँ बखानत है,
- जग्य जलौ जीव पावै स्वर्ग सुखदाई है। डारे क्यों न वीर यामैं अपने कुटुम्ब ही कौं?
मोहि जिन, जारे जगदीश की दुहाई है ॥४७॥ यज्ञ में बलि के लिए प्रस्तुत असहाय पशु पूछता है कि -
हे यज्ञ करने वाले ! मुझे अग्नि में होम देने में तुम्हारी क्या बड़ाई है? अथवा इसमें तुम्हें क्या लाभ है? सुनो ! मुझे स्वर्गसुख नहीं चाहिए और न ही मैं तुमसे उसे माँगता हूँ। मुझे कुछ दो' - ऐसा मैं तुमसे नहीं कहता हूँ। मैं तो बस घास खाकर रहता हूँ, यही मेरी अभिलाषा है।
और हे वीर पुरुष ! जो तुम ऐसा समझते हो कि यज्ञ में बलि के रूप में होम दिया जाने वाला जीव वेदानुसार सुखदायक स्वर्ग प्राप्त करता है, तो तुम इस यज्ञाग्नि में अपने कुटुम्ब को ही क्यों नहीं डालते हो? मुझे तो मत जलाओ, तुम्हें भगवान की सौगंध है।