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जैन शतक
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( कवित्त मनहर )
जाक इन्द्र चाहैं अहमिंद्र से उमाहैं जासौं, जीव मुक्ति-माहैं जाय भौ-मल बहावै है । ऐसौ नरजन्म पाय विषै विष खाय खोयौ,
जैसैं काच साँटें मूढ़ मानक गमावै है ॥ मायानदी बूड़ भीजा काया-बल-तेज छीजा,
आया पन तीजा अब कहा बनि आवै है । तातैं निज सीस ढोलै नीचे नैन किये डोलै,
कहा बढ़ि बोलै वृद्ध बदन दुरावै है ॥ ४१ ॥ अहो ! जिसे इन्द्र और अहमिन्द्र भी उत्साहपूर्वक चाहते हैं और जिसे धारण कर जीव सर्व सांसारिक मलिनता को दूर कर मोक्ष में चला जाता है, ऐसे नरजन्म को पाकर भी इस अज्ञानी जीव ने विषयरूपी विष खाकर उसे ऐसे खो दिया है, जैसे कोई मूर्ख काँच के बदले माणिक खो देता है ।
तथा अब तो यह मायानदी में डूबकर इतना भीग गया है कि शरीर का सारा बल और तेज क्षीण हो गया है, तीसरापन आ गया है, अतः ऐसे में हो ही क्या सकता है? यही कारण है कि यह वृद्ध अपना सिर हिलाता हुआ नीची दृष्टि किये डोलता रहता है । अब बढ़ - बढ़कर क्या बोले ? इसीलिए मुँह छुपाये रहता है ।
( मत्तगयंद सवैया)
देखहु जोर जरा भट कौ, जमराज महीपति को अगवानी । उज्जल केश निशान धेरै, बहु रोगन की सँग फौज पलानी ॥ कायपुरी तजि भाजि चल्यौ जिहि, आवत जोबनभूप गुमानी । लूट लई नगरी सगरी, दिन दोय मैं खोय है नाम निशानी ॥ ४२ ॥
इस बुढ़ापेरूपी योद्धा का प्रभाव तो देखिये ! यह यमराज (मृत्यु) रूपी राजा के आगमन की सूचना है, सफेद बाल इसका चिह्न ( ध्वज) है, ढेरों रोगों की सेना इसके साथ दौड़ती आ रही है, यौवनरूपी अभिमानी राजा इसे आता हुआ देखकर अपनी कायारूपी नगरी को छोड़कर भाग छूटा है, इस बुढ़ापेरूपी योद्धा ने सारी कायारूपी नगरी लूट ली है और अब कुछ ही समय में यह उसका नामोनिशान ही मिटा देगा।