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जैन शतक
१३. भोग-निषेध
(मत्तगयंद सवैया) तू नित चाहत भोग नए नर ! पूरवपुन्य विना किम पैहै। कर्मसँजोग मिले कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सकै है। जो दिन चार को ब्योंत बन्यौं कहुँ, तौ परि दुर्गति मैं पछितैहै। याहितें यार सलाह यही कि, गई कर जाहु निबाह न है है॥१९॥
हे मित्र ! तुम नित्य नये-नये भोगों की अभिलाषा करते हो, किन्तु यह तो सोचो कि तुम्हारे पुण्योदय के बिना वे तुम्हें मिल कैसे सकते हैं ? और कदाचित् पुण्योदय से मिल भी गये तो हो सकता है, रोगादिक के कारण तुम उन्हें भोग ही नहीं सको। और, यदि किसी प्रकार चार दिन के लिए भोग भी लिये तो उससे क्या हुआ? दुर्गति में जाकर दुःख उठाने पड़ेंगे। इसलिए हे प्यारे मित्र ! हमारी तो सलाह यही है कि तुम इनकी ओर से गई कर जाओ - उदास हो जाओ - इनकी उपेक्षा कर दो, अन्यथा पार नहीं पड़ेगी। ____ आशय यह है कि प्रथम तो वांछित भोगों का मिलना ही कठिन है, यदि मिल जाये तो उन्हें भोगना कठिन है, और कदाचित् थोड़ा-बहुत भोगना भी हो जाये तो उससे भी कोई तृप्ति तो मिलती नहीं और परभव में दुर्गति के अपार दुःख
और उठाने पड़ते हैं; अतः उचित यही है कि विषय-भोगों की अभिलाषा त्यागकर आत्मकल्याण किया जाये।
१४. देह-स्वरूप
(मत्तगयंद सवैया) मात-पिता-रज-वीरज सौं, उपजी सब सात कुधात भरी है। माँखिन के पर माफिक बाहर, चाम के बेठन बेढ़ धरी है। नाहिं तौ आय लगैं अब ही बक, वायस जीव बचै न घरी है। देहदशा यहै दीखत भ्रात ! घिनात नहीं किन बुद्धि हरी है ॥२०॥
यह शरीर माता-पिता के रज-वीर्य से उत्पन्न हुआ है, और इसमें अत्यन्त अपवित्र सप्त धातुएँ (रस, रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा और वीर्य) भरी हुई हैं । वह तो इसके ऊपर मक्खी के पर के समान पतला-सा वेष्टन चढ़ा हुआ है, अन्यथा इस पर इसी वक्त बगुले-कौए आकर टूट पड़ें और यह देखते ही देखते साफ हो जाये, घड़ी भर भी न बचे। :.. : .. हे भाई ! शरीर की ऐसी अपवित्र दशा को देखकर भी तुम इससे विरक्त क्यों नहीं होते हो ? तुम्हारी बुद्धि किसने हर ली है?