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जैन शतक
९. श्री जिनवाणी स्तुति
(मत्तगयंद सवैया) वीरहिमाचल ते निकसी, गुरु गौतम के मुखकुण्ड ढरी है। मोहमहाचल भेद चली, जग की जड़तातप दूर करी है॥ ज्ञानपयोनिधि माहिं रली, बहु भंग-तरंगनि सौं उछरी हैं। ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अँजुरी निज सीस धरी है॥१४॥
जो भगवान महावीररूपी हिमालय पर्वत से निकली है, गौतम गणधर के मुखरूपी कुण्ड में ढली है, मोहरूपी विशाल पर्वतों का भेदन करती चल रही है, जगत् की अज्ञानरूपी गर्मी को दूर कर रही है, ज्ञानसमुद्र में मिल गई है और जिसमें भंगों रूपी बहुत तरंगें उछल रही हैं; उस जिनवाणीरूपी पवित्र गंगा नदी को मैं हाथ जोड़कर और शीश झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
(मत्तगयंद सवैया) या जग-मन्दिर मैं अनिवार, अज्ञान-अँधेर छयौ अति भारी। श्रीजिन की धुनि दीपशिखा सम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी॥ तो किहँ भाँति पदारथ-पाँति, कहाँ लहते, रहते अविचारी। या विधि संत कहैं धनि हैं, धनि हैं जिनवैन बड़े उपगारी॥१५॥
ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि अहो! इस संसाररूपी भवन में अज्ञानरूपी अत्यधिक घना अन्धकार छाया हुआ है। उसमें यदि यह प्रकाश करने वाली जिनवाणीरूपी दीपशिखा नहीं होती तो हम वस्तु का स्वरूप किस प्रकार समझते, भेदज्ञान कैसे प्राप्त करते ? तथा इसके बिना तो हम अविचारी - अज्ञानी ही रह जाते ।अहो ! धन्य है !! धन्य है !!! जिनवचन परम उपकार हैं।
विशेष :-जिनवाणी-स्तुति के उक्त दोनों छन्द (छन्द-संख्या १४ व १५) देश भर की शास्त्रसभाओं में शास्त्र-स्वाध्याय या प्रवचन पूर्ण होने के बाद जिनवाणी-स्तुति के रूप में बोले जाते हैं; परन्तु खेद की बात है कि आज अधिकांश लोगों को यह ज्ञात नहीं है कि इनके रचयिता महाकवि भूधरदास हैं। अनेक लोग तो यह तक समझते-समझाते पाये जाते हैं कि इसके रचयिता संत कवि ('सिद्धचक्र विधान' वाले) हैं। हो सकता है उन्हें ऐसा भ्रम छन्दसंख्या १५ की अन्तिम पंक्ति के 'संत' शब्द से हुआ हो, पर आशा है कि अब सब लोग अपनी भूल सुधार लेंगे।