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जैन शतक
६. श्री वर्द्धमान स्तुति
(दोहा). दिढ़-कर्माचल-दलन पवि, भवि-सरोज-रविराय। कंचन छवि कर जोर कवि, नमत वीरजिन-पाँय ॥९॥ प्रबल कर्मरूपी पर्वत को चकनाचूर करने के लिए जो वज्र के समान हैं, भव्यजीवरूपी कमलों को खिलाने के लिए जो श्रेष्ठ सूर्य के समान हैं और जिनकी प्रभा स्वर्णिम है; उन भगवान महावीर के चरणों में मैं हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हूँ।
विशेष :- यहाँ कवि ने 'दिढ़ कर्माचल दलन पवि' कहकर भगवान के वीतरागता गुण की ओर संकेत किया है, 'भवि-सरोज-रविराय' कहकर हितोपदेशी पने की ओर संकेत किया है और 'कंचन छवि' कहकर सर्वज्ञता गुण की ओर संकेत किया है । तात्पर्य यह है कि जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं, उन वर्द्धमान जिनेन्द्र के चरणों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
(सवैया) रही दूर अंतर की महिमा, बाहिज गुन वरनन बल का पै। एक हजार आठ लच्छन तन, तेज कोटिरवि-किरनि उथापै॥ सुरपति सहसआँख-अंजुलि सौं, रूपामृत पीवत नहिं धापै। तुम बिन कौन समर्थ वीर जिन, जग सौं काढ़ि मोख मैं थापै॥१०॥
हे भगवान महावीर ! आपके अन्तरंग गुणों की महिमा तो दूर, बहिरंग गुणों का वर्णन करने की भी सामर्थ्य किसी में नहीं है।
एक हजार आठ लक्षणों से युक्त आपके शरीर का तेज करोड़ों सूर्यों की किरणों को उखाड़ फेंकता है अर्थात् आपके शरीर के तेज की बराबरी करोड़ों सूर्य भी नहीं कर सकते हैं। देवताओं का राजा इन्द्र हजार आँखों की अंजुलि से भी आपके रूपामृत को पीता हुआ तृप्त नहीं होता है।
हे वार प्रभो ! इस जगत् में आपके अतिरिक्त अन्य कौन ऐसा समर्थ है, जो जीवों को संसार से निकालकर मोक्ष में स्थापित कर सके ?
विशेष :-१. यहाँ कवि ने प्रथम पंक्ति में ही कहा है कि भगवान के अंतरंग गुणों की महिमा तो दूर, बहिरंग गुणों का वर्णन करने की भी सामर्थ्य किसी में नहीं है । सो ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ कवि ने पहले [वर्द्धमान-स्तुति के प्रथम छन्द (९वें) में] भगवान के अंतरंग गुणों की स्तुति की है और अब