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________________ षड्द्रव्य एवं विश्व-व्यवस्था जैन धर्म के अनुसार विश्व को किसी ने नहीं बनाया और न ही कोई इसका संहार (विनाश) करने में समर्थ है। यह सृष्टि हमेशा से है और हमेशा रहेगी। ईश्वर ही सब कुछ चला रहा है -जैसी अवैज्ञानिक बातों पर जैन धर्म विश्वास नहीं करता है। जैन धर्म के अनुसार इस विश्व का निर्माण छह द्रव्यों से मिलकर स्वतः ही हुआ है। प्रत्येक द्रव्य स्वाधीन है। द्रव्य अविनाशी है। उसकी सिर्फ़ अवस्था (पर्याय) बदलती है। स्वयं परिवर्तित होकर दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता; तथा दृष्टि से वह नित्य है। जैन धर्म में द्रव्य मीमांसा बहुत सूक्ष्म है। इसका गहराई से अध्ययन करने पर कई नए रहस्यों का उद्घाटन होता है। आचार्य कुंदकुंद का पंचास्तिकाय तथा आचार्य नेमिचंद्र मुनि का द्रव्यसंग्रह आदि नामक ऐसे प्रमुख ग्रंथ हैं जिनमें छह द्रव्यों के बारे में अच्छी जानकारी मिल जाती है। यहाँ हम छह द्रव्यों से युक्त विश्व के बारे में सामान्य जानकारी लेंगे। द्रव्य का लक्षण 'सत् द्रव्यलक्षणम्' कहकर सत् (सत्ता) को द्रव्य का लक्षण माना गया है। सत्ता का अर्थ होता है- ‘अस्तित्व' । द्रव्य का सामान्य लक्षण सत् इसलिए किया गया कि जितने भी द्रव्य तथा उनके भेद-प्रभेद हैं, उनके विशेष लक्षण अलग-अलग हो सकते हैं। इसलिए उनमें एक ऐसा लक्षण बने जो सभी द्रव्यों में समान रूप से रहे ही रहे। इसलिए 'अस्तित्व' को द्रव्य का सामान्य लक्षण बनाया जिसका इस जगत् में कोई अस्तित्व ही नहीं है, वह द्रव्य हो ही नहीं सकता। 'सत्' क्या है? 'सत्' अर्थात् सत्ता, इसका अर्थ अस्तित्व है जो हम बता चुके हैं किंतु इस ‘सत्' की भी तो कोई परिभाषा होनी चाहिए। 'सत्' की एक वैज्ञानिक परिभाषा आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में प्रस्तुत की- 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्', अर्थात् 'सत्' उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यता से युक्त होता है। ___ इस बात को हमें एक उदाहरण से समझना होगा। जैसे सोना (स्वर्ण) एक द्रव्य है। उसका हार भी बनता है। अंगूठी भी बनती है। एक सुनार ने सोने के हार को गलाकर उसी सोने से अंगूठी बना दी। यहाँ 'हार' का व्यय हुआ अर्थात् नाश हुआ और अँगूठी का उत्पाद हुआ अर्थात् उत्पत्ति हुई और इन दोनों की अवस्थाओं में सोना-सोना ही रहा अर्थात् वह धौव्य रहा। यहाँ स्वर्ण के स्वर्णत्व का नाश होकर वह चाँदी या पीतल द्रव्य रूप नहीं हुआ, बल्कि वह स्वयं नित्य अविनाशी यथावत् विद्यमान रहा। । जैन धर्म-एक झलक ।
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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