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________________ भी सम्भव है कि किसी के रागादि पूर्णतया नष्ट हो गए हों तथा ज्ञानादि पूर्णतया व्यक्त हो गए हों । आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी इस तथ्य को आप्तमीमांसा में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं 1 "दोषावरणयोर्हानि: निःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ जैसे लोक में स्व हेतुओं से / अग्नि-ताप आदि से कनक - पाषाणादि की अन्तर्बाह्य मलरूप अशुद्धता पूर्णतया नष्ट हो जाने के कारण स्वर्ण पूर्णतया शुद्ध होता देखा जाता है; उसीप्रकार मोहादि दोष और ज्ञानावरण आदि आवरण हीनाधिक स्वभाववाले होने से किसी जीव के शुद्धोपयोग रूप ध्यानाग्नि के ताप द्वारा वे पूर्णतया नष्ट हो जाने के कारण वह जीव पूर्ण शुद्ध अर्थात् वीतराग-सर्वज्ञ हो जाता है । " ये सर्वज्ञ ही तीनकाल - तीनलोकवर्ती स्व- पर सभी पदार्थों को एकसाथ प्रत्यक्ष जानते हैं। मोहादि दोषरूप अंतरंगमल / भावकर्म और ज्ञानावरण आदि आवरण रूप बहिरंगमल / द्रव्यकर्म ही सर्वज्ञता के बाधक कारण हैं। जिनके ये दोनों नहीं हैं; वे वीतराग-सर्वज्ञ हैं । उनके पर से पूर्ण निरपेक्ष, अनन्त सामर्थ्यसम्पन्न अतीन्द्रिय ज्ञान व्यक्त हुआ है। जो सभी को एकसाथ जानता है। २. अग्नि अनुमेय / अनुमान ज्ञान की विषय होने से, उसके समीप नहीं होने पर भी हमें वह धूम (धुँआ ) आदि साधन से ज्ञात हो जाती है; परन्तु उसके समीप स्थित व्यक्ति उसे प्रत्यक्ष देख लेता है; अर्थात् जिसे कोई अनुमानरूप परोक्ष - ज्ञान से जान लेता है, उसे कोई न कोई प्रत्यक्ष - ज्ञान से अवश्य ही जान लेता है। सूक्ष्म, अन्तरित, दूरवर्ती पदार्थों को; क्योंकि हम अपने अनुमानरूप परोज्ञ-ज्ञान से जान रहे हैं; अतः कोई न कोई उन्हें अपने प्रत्यक्ष - ज्ञान से अवश्य ही जानता होगा। उन्हें प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान ही सर्वज्ञ कहलाता है । इसे वे वहीं इसप्रकार स्पष्ट करते हैं. " सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः, प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा । - अनुमेयत्वतोऽयादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥५॥ अग्नि आदि के समान अनुमेय होने के कारण सूक्ष्म, अन्तरित और दूर - देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) / २२३
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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