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अब, कथंचित् सत् और असत् कहने की अपेक्षा स्पष्ट करते हैंसदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। १५ । स्व-रूपादि चतुष्टय से सब, सत् ही कौन नहीं चाहे ?
पर - रूपादि चतुष्टय से सब, असत् न माने नहीं बने ।। १५ ।। शब्दश: अर्थ : सत-एव = सत् ही, सर्वं = सभी को, कः = कौन, न=नहीं, इच्छेत्=चाहेगा, स्वरूप-आदि-स्व-रूपादि / स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र-स्वकाल -स्वभावरूप, चतुष्टयात्=चतुष्टय की अपेक्षा से, असद्-एव=असत् ही, विपर्यासात्=इससे विपरीत परद्रव्य-परक्षेत्र- परकाल-परभावरूप परचतुष्टय की अपेक्षा, न=नहीं, चेत्=यदि, न=नहीं, व्यवतिष्ठते=व्यवस्था सिद्ध होगी ।
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सरलार्थ : स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावमय स्वरूप-चतुष्टय की अपेक्षा सभी वस्तुएं सत् हैं - ऐसा कौन स्वीकार नहीं करेगा ? तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभावमय पररूप-चतुष्टय की अपेक्षा सभी वस्तुएं असत् हैं- ऐसा कौन स्वीकार नहीं करेगा ? अर्थात् सभी स्वीकार करेंगे। यदि स्वीकार नहीं करेगा तो उसके विचारानुसार वस्तु-व्यवस्था ही सिद्ध नहीं हो सकेगी ॥ १५ ॥
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अब शेष रहे कथंचित् उभय आदि भंगों की अपेक्षा स्पष्ट करते हैं - क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगा: स्वहेतुत: ॥ १६ ॥ क्रम से ग्रहण करो उभयात्मक युगपत् अवक्तव्य वह ही । अपने-अपने कारण से सद् असद् उभय वक्तव्य नहीं ॥ १६ ॥ शब्दश: अर्थ : क्रम-अर्पित-द्वयाद् = क्रम से दोनों को ग्रहण करने की अपेक्षा, द्वैतं = दोनों रूप, सह-एक साथ दोनों को ग्रहण करने की अपेक्षा, अवाच्यं=अवाच्य, अशक्तितः = कहने की शक्ति नहीं होने से, उत्तरा:=अवक्तव्य के आगे, शेषाः = शेष, त्रयो= तीन, भंगा: = भंग, स्वहेतुत: = अपने-अपने कारण से । सरलार्थ : सत्-असत् – दोनों को क्रमशः ग्रहण करने पर वस्तु उभयरूप • देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) / २२१
अवक्तव्य
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