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________________ एकान्त, स्याद्वाद-न्याय-विद्विषां स्याद्वाद-न्याय के साथ विद्वेष रखने वालों के यहाँ, अवाच्यता वचन अगोचर का, एकान्ते एकान्त मानने पर, अपि=भी, उक्ति: कथन, न-नहीं, अवाच्यं वचन अगोचर, इति= ऐसा, युज्यते-कहा जा सकेगा। सरलार्थ : स्याद्वाद-न्याय के साथ विद्वेष रखनेवाला यदि कोई भावैकान्त और अभावैकान्त में आने वाले दोषों से बचने के लिए उभयैकान्त को स्वीकार करता है तो उन दोनों में परस्पर विरुद्धता होने से उभयैकान्त में दोनों के ही दोष आ जाते हैं। इन सब दोषों से बचने के लिए अवाच्यता का एकान्त स्वीकार करने पर अवाच्य' – यह कथन भी सम्भव नहीं हो सकेगा; क्योंकि अवाच्य कहने पर वस्तु ‘अवाच्य' शब्द से वाच्य हो जाएगी॥१३॥ अब, जिनेन्द्र भगवान द्वारा स्याद्वाद शैली से प्रतिपादित अनेकान्तात्मक वस्तु-व्यवस्था का निरूपण करते हैं - कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत्। तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ॥१४॥ प्रभो! आपको वस्तु कथंचित् सत् ही असत् इष्ट ही है। उभय अवाच्य सप्तभंगात्मक, नय से वस्तु स्वीकृत है॥१४॥ शब्दशः अर्थ : कथंचित् किसी अपेक्षा से, ते आपके लिए, सत्= विद्यमान/भाव स्वरूप वस्तु, एव=ही, इष्ट-मान्य है, कथंचित् किसी अपेक्षा से, असद्=अविद्यमान/अभाव स्वरूप वस्तु, एव-ही, तत्-वह, तथा उसीप्रकार, उभयं-सद्-असद् – दोनों रूप, अवाच्यं नहीं कह सकने-योग्य, च और, नययोगात्=नय योग से/विवक्षा-भेद से, न=नहीं, सर्वथा पूर्णरूप से। सरलार्थ : हे भगवन ! आपके द्वारा मान्य/बताया गया वस्तु-स्वरूप नय की अपेक्षा/विवक्षा-भेद से कथंचित् सत् ही है, कथंचित् असत् ही है, कथंचित् उभय ही है, कथंचित् अवाच्य/अवक्तव्य ही है, कथंचित् सत् अवक्तव्य ही है, कथंचित् असत् अवक्तव्य ही है, कथंचित् उभय/सदसत् अवक्तव्य ही है। ये सप्तभंग नय अपेक्षा से ही हैं, सर्वथा नहीं हैं ।।१४।। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२२० -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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