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पर, सर्वात्मकं-सभी स्वरूप, अनादि-प्रारम्भ से रहित, अनन्तं अन्त से रहित, अस्वरूपं स्वरूप से रहित, अतावकं तुम्हारा/आपका मत नहीं है|आपको स्वीकृत नहीं है। सरलार्थ : हे भगवन ! पदार्थों का एकान्त भाव/सर्वथा सद्भाव स्वीकार करने पर, अभावों का सर्वथा निषेध हो जाने के कारण सभी पदार्थ सर्वात्मक/सभीमय हो जाएंगे, अनादि और अनन्त हो जाएंगे, किसी का कुछ भी पृथक् स्वरूप नहीं रह जाएगा; परन्तु ऐसा आपको स्वीकृत नहीं है।।९।।
अब, अभाव की सर्वथा अस्वीकृति में आनेवाले दोषों को स्पष्ट करते हैं
कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निह्नवे। प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥ प्रागभाव के निह्नव से, सब पर्यायें अनादि होंगीं।
प्रध्वंसाभाव नहीं मानें तो, हर हालत अनन्त होगी॥१०॥ शब्दश: अर्थ : कार्य द्रव्य-किसी विशिष्ट कार्य/पर्यायरूप से परिणमित द्रव्य, अनादि-प्रारम्भ रहित, स्यात् हो जाना चाहिए/हो जाएगा, प्राक्अभावस्य-प्राक् अभाव/प्रागभाव का, निह्नवे निषेध करने पर, प्रध्वंसस्य =प्रध्वंसरूप, च-और, धर्मस्य धर्म का, प्रच्यवे=निषेध करने पर, अनंततां =अनन्तता को, व्रजेत् प्राप्त हो जाना चाहिए/हो जाएगा। सरलार्थ : प्रागभाव का निषेध करने पर कार्यरूप द्रव्य द्रव्य की पर्यायें अनादि हो जाएंगी और प्रध्वंसाभाव का निषेध करने पर द्रव्य की पर्यायें अनन्तता को प्राप्त हो जाएंगीं॥१०॥ अब, दशवीं कारिका द्वारा शेष रहे दो दोषों को स्पष्ट करते हैं - सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोह-व्यतिक्रमे। अन्यत्र समवाये न, व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ अन्यापोह निषेध करे तो, सभी एक ही हो जाएं।
पूर्णाभाव नहीं मानें तो, कथन असम्भव हो जाए॥११॥ शब्दश: अर्थ :सर्वात्मकं-दृश्यमान सभी, तद्-वे, एकं एक, स्यात् हो जाएंगे, अन्य-अपोह=अन्य अभाव/अन्योन्याभाव का, व्यतिक्रमे= निषेध
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२१८ -