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वादिनां-एकान्तवादिओं के, आप्त-अभिमान-दग्धानां आप्त नहीं होने पर भी मैं आप्त हूँ' - इस अभिमान से दग्ध/ग्रसित, स्व-इष्टं स्वयं को मान्य, दृष्टेन-प्रत्यक्ष से, बाध्यते बाधित हो जाता है। सरलार्थ : हे भगवन ! आपके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तरूपी अमृत से बाहर/पृथक्, आप्त नहीं होने पर भी मैं आप्त हूँ'- ऐसे अभिमान से ग्रसित, सर्वथा एकान्तवादिओं के मत में, उनके द्वारा प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित हो जाता है; अत: वे गुरु नहीं हो सकते हैं॥७॥
अब, इस हेतु को ही विशेष स्पष्ट करते हैं - कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ ! स्वपरबैरिषु ॥८॥ कर्म शुभाशुभ परलोकादि, नहीं बनें उनके मत में।
जो एकान्त पक्षवाले, स्व-पर के बैरी पर मत में ॥८॥ शब्दश: अर्थ :कुशल-शुभ, अकुशल-अशुभ, कर्म=द्रव्यकर्म/भावकर्म/कार्य/प्रवृत्तिआँ, परलोक:=परलोक, च=और, न=नहीं, क्वचित्= कुछ भी, एकान्तग्रहरक्तेषु एकान्त के आग्रह में रक्त अथवा एकान्तरूपी पिशाच के अधीन, नाथ ! हे भगवन!, स्वपरबैरिषु-स्व और पर- दोनों के ही शत्रु सर्वथा एकांतवादिओं के यहाँ।। सरलार्थ : हे भगवन ! एकान्तरूपी पिशाच के अधीन, स्व-पर - दोनों के ही शत्रु/बुरा करने वाले सर्वथा एकान्तवादिओं के यहाँ शुभ-अशुभ कर्म और परलोक आदि कुछ भी व्यवस्थित सिद्ध नहीं होता है।।८॥ __ अब, वस्तु को सर्वथा भावात्मक मान लेने पर आनेवाले दोषों को बताते हैं -
भावैकान्ते पदार्थाना- मभावाना- मपह्नवात् । सर्वात्मक- मनाद्यन्त- मस्वरूप- मतावकम् ॥९॥ भावमात्र हैं मान्य वस्तुएं, अभाव से सर्वथा रहित।
उनके सभी सभीमय आदि-अन्तविहीन स्वरूप रहित॥९॥ शब्दश: अर्थ : भाव-एकान्ते सर्वथा भाव/सद्भाव स्वीकार करने पर, पदार्थानां पदार्थों के, अभावानां अभावों का, अपह्नवात् निषेध करने
-देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा)/२१७