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तत्पश्चात् नय, द्रव्य, नयों की स्थिति, स्याद्वाद शैली द्वारा अनंतधर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने वाली वाणी की सत्यता का निरूपण १०६ से ११३ पर्यंत ८ कारिकाओं द्वारा करके, कल्याण के इच्छुक जीवों को सम्यक् उपदेश और मिथ्या उपदेश के अर्थ-विशेष की प्रतिपत्ति के लिए यह आप्तमीमांसा ग्रन्थ लिखा गया है' - इत्यादि भाव ११४वीं कारिका द्वारा व्यक्त करते हुए यह ग्रन्थ समाप्त किया है। ___ इसप्रकार इस ग्रन्थ में सांकेतिक शैली द्वारा लोक प्रचलित सर्वथा एकांत मान्यताओं का निराकरण कर, सप्तभंगात्मक स्याद्वाद शैली द्वारा अनंत धर्मात्मक वस्तु-व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है। टीकाएँ : इस लघुकाय ग्रन्थ पर तीन टीकाएँ/व्याख्याएँ उपलब्ध हैं - १. देवागम-विवृत्ति, २. देवागमालंकार और ३. देवागमवृत्ति। १. देवागम-विवृत्ति : भट्ट अकलंकदेव कृत और आप्तमीमांसा-भाष्य, देवागम-भाष्य तथा अष्टशती - इन नामों से ख्यात यह देवागम-विवृत्ति भारतीय दर्शन-साहित्य की बेजोड़ रचना है। यह उपलब्ध व्याख्याओं में सर्वाधिक प्राचीन और अत्यंत दुरूह व्याख्या है। २. देवागमालंकार : आचार्य विद्यानन्दकृत और आप्तमीमांसालंकृति, आप्तमीमांसालंकार तथा अष्टसहस्री- इन नामों से प्रसिद्ध यह देवागमालंकार विस्तृत और प्रमेय-बहुल व्याख्या है। इसमें देवागम की कारिकाओं के प्रत्येक पद-वाक्यादि का विस्तार पूर्वक अर्थोद्घाटन के साथ ही उपर्युक्त अष्टशती के भी प्रत्येक पद-वाक्यादि का विशद अर्थ और मर्म प्रस्तुत किया गया है। इसके महत्त्व की उद्घोषणा करते हुए स्वयं व्याख्याकार ने लिखा है कि -
"श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः।
विज्ञायेत ययैव स्वसमय-परसमय-सद्भावः॥ अष्टसहस्री सुनने/पढ़नेवालों के लिए अन्य हजारों शास्त्रों से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि उन्हें स्वसमय-परसमय का सद्भाव इसके द्वारा ही ज्ञात हो जाता है।" ३. देवागमवृत्ति : आचार्य वसुनन्दि कृत यह टीका मूल कारिकाओं का अर्थ समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। इसमें न तो अष्टशती की
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/२१२