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________________ की पुनर्प्रतिष्ठा कर कलिकाल-सर्वज्ञ की उपाधि को सार्थक किया। आप जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य/न्यायाचार्य हैं। आप संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम स्तुतिकार हैं। आपने स्तुति साहित्य को प्रौढ़ता प्रदान करने के साथ ही उसे अत्यंत गंभीर न्यायों से भरा है। __ आपके द्वारा लिखित साहित्य में से आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, स्वयम्भू-स्तोत्र, जिनस्तुति-शतक, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार, प्राकृतव्याकरण, प्रमाण-पदार्थ, कर्मप्राभृत टीका उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त अनुपलब्ध ग्रन्थों में गंध-हस्ति महाभाष्य प्रचलित है। इनमें से प्रारम्भिक पाँच ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इसप्रकार है१. आप्त-मीमांसा : ११४ कारिकाओं में रचित यह भगवान की स्तुति करने के बहाने अनेकानेक विपरीत मान्यताओं का निराकरण कर अनन्तधर्मात्मक वस्तु-व्यवस्था का प्रतिपादक दार्शनिक ग्रन्थ है। २. युक्त्यनुशासन :६४ पद्यों में रचित यह दार्शनिक शैली में वीर जिन' की स्तुति परक ग्रन्थ है। ३. स्वयम्भू-स्तोत्र : १४३ पद्यों में रचित इसमें दार्शनिक शैली द्वारा चौबीस तीर्थंकरों का गुण-स्तवन है। ४. जिनस्तुति-शतक : ११६ पद्यों में निबद्ध यह अलंकारिक अपूर्व काव्य रचना है। इसमें भी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। इसका एक नाम स्तुति विद्या' भी है। ५. रत्नकरण्ड-श्रावकाचार : १५० पद्यों द्वारा इसमें श्रावकधर्म की मुख्यता से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप सम्यक् रत्नत्रय का चरणानुयोग की शैली से विवेचन है। आपके पश्चात् हुए आचार्यों ने आपका स्मरण अत्यंत सम्मानसूचक शब्दों में किया है। वादिराजसूरी यशोधरचरित्र में आपको काव्यमणिकों का आरोहण' तथा वादीभसिंहसूरी गद्यचिन्तामणि में आपको ‘सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि' कहते हैं।- इत्यादि रूप में अनेकों आचार्यों ने आपको अनेकों विशिष्ट उपाधिओं से सम्बोधित किया है, जिनका उल्लेख कृतिओं तथा शिलालेखों में उपलब्ध है। देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा)/२०७
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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