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आदि विद्यमान होने से ये छद्मस्थ कहलाते हैं। मोहनीय कर्म के उपशम की निमित्तता में ये अंतर्मुहूर्त पर्यंत के लिए पूर्ण सुखी हैं। ___ यहाँ इन वीतरागी भावों में या पूर्ण सुख में जघन्य, उत्कृष्ट आदि का भेद नहीं है; आदि-मध्य-अंत के सभी परिणाम समान हैं। कर्म के उपशम का समय सदा एक अंतर्मुहूर्त ही होने से काल-क्षय के कारण या मनुष्यायु के क्षयरूप भव-क्षय के कारण ही ये भाव नष्ट होते हैं। यह उपशम-श्रेणी का और औपशमिक भावों का अंतिम गुणस्थान है। इससे आगे औपशमिक भाव का अस्तित्व नहीं है; अत: इसका उपशम/उपशांत' विशेषण अंत्य-दीपक है। पूर्ण वीतरागता यहाँ से ही व्यक्त हुई होने से इसका 'वीतराग' विशेषण आदि-दीपक है अर्थात् इसके पूर्व सभी सरागी ही थे। एक अपेक्षा से यह मध्यम अंतरात्मा की चरम सीमा मानी गई है। ___ चौदह गुणस्थानों में से एकमात्र यह उपशांत-मोह नामक ग्यारहवाँ गुणस्थान ही पुनरागमन वाला गुणस्थान है अर्थात् जहाँ से यह उपशम का कार्य प्रारम्भ हुआ था; उपशमनरूप फल-प्राप्तिमय इस गुणस्थान की प्राप्ति हो जाने के बाद भी यहाँ से च्युत हो पुनः वहीं तक जाना पड़ता है; उसके बाद ही क्षपण का कार्य प्रारम्भ हो सकता है; बीच में सावधान होकर नवीन पुरुषार्थ करने के लिए अवसर नहीं है।
यह एक मुनि-जीवन में अधिक से अधिक दो बार तथा मोक्ष-प्राप्ति पर्यंत के काल में अधिक से अधिक चार बार प्राप्त हो सकता है। यहाँ मरण होने पर नियम से देवगति की प्राप्ति होती है।
सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ द्वितीयोपशमरूप औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यक्त्व ही रह सकता है; क्षायोपशमिक नहीं रहता है।
चारित्र की अपेक्षा इसमें मोहनीय कर्म के उपशम की निमित्ततावाला औपशमिक यथाख्यात चारित्र ही होता है; अन्य नहीं। "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा: बंधहेतवः - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये ५, बंध के हेतु हैं" - ऐसा आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र, अष्टमोऽध्याय, सूत्र एक में बताया है। इनमें से यहाँ प्रारम्भिक ४ हेतुओं का अभाव हो जाने से उन संबंधी बंध भी नहीं है। एकमात्र योग विद्यमान होने से उसकी निमित्तता में मात्र सातावेदनीय
- चतुर्दश गुणस्थान/१६७ -