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उत्तर : एकमात्र उपशम-श्रेणी से ही आरोहण की स्थिति में प्राप्त होनेवाले तथा नियम से नष्ट होनेवाले इस गुणस्थान का स्वरूप बताते हुए आचार्यश्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार जीवकाण्ड नामक ग्रन्थ में लिखते हैं"कदकफलजुदजलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं।
सयलोबसंतमोहो, उबसंतकसायओ होदि॥६॥ कतक/निर्मली फल से सहित जल के समान या शरद-कालीन सरोवर के जल के समान सम्पूर्ण मोह के उपशम की निमित्तता में व्यक्त हुई दशा उपशांत-कषाय/मोह कहलाती है।"
इस गुणस्थान का पूरा नाम उपशांत-मोह/कषाय-वीतराग-छद्मस्थ है। इसका जो विश्लेषण आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल टीका में किया है; उसका हिन्दी-सार इसप्रकार है
“जिनकी कषायें उपशांत हो गई हैं, उन्हें उपशांत-कषाय कहते हैं। जिनका राग नष्ट हो गया है, उन्हें वीतराग कहते हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म को 'छद्म' कहते हैं; उनमें स्थित जीव अर्थात् वे कर्म जिनके विद्यमान हैं, वे छद्मस्थ कहलाते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ हैं; उन्हें वीतराग-छद्मस्थ कहते हैं। इसमें आए वीतराग' विशेषण से दशम गुणस्थान पर्यंत के सराग छद्मस्थों का निराकरण समझना चाहिए। जो उपशांत-कषाय होते हुए भी वीतराग छद्मस्थ हैं; उन्हें उपशांतकषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते हैं। इस उपशांत-कषाय' विशेषण से आगे के गुणस्थानों का निराकरण समझना चाहिए।" ___ भाव यह है कि जैसे मलिन जल में कतक/निर्मली फल डालने से मलिनता नीचे तल में बैठ जाती है; शरद-कालीन सरोवर के जल में कीचड़ नीचे बैठा रहता है; प्रसंग पाकर वह मलिनता या कीचड़ पुनः जल के साथ एकमेक हो जाता है; उसीप्रकार आत्मा के जिन वीतरागी भावों की निमित्तता में मोहनीय कर्म का पूर्णतया उपशम हो जाता है| उसके स्पर्धक उदय में नहीं आते हैं, दबे रहते हैं; उन भावों को उपशांतमोह/कषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते हैं। यहाँ औपशमिक वीतरागता हो जाने पर भी ज्ञानावरणादि शेष कर्मों की निमित्तता में औदयिक अज्ञान
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१६६ -
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