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५८ तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन ज्ञाता और ज्ञेय भिन्न है इसका भी हो जाता ज्ञान ।
सहज ज्ञान होता पदार्थ का आकुलता होती अवसान || ६. ॐ ह्रीं उसर्गादिविकल्परहितामरचिद्रूपायनमः ।
ज्ञानादिगुणनिकरोऽहम् । जो चिद्रूप शुद्ध में रहते शान्ति शील की होती प्राप्ति । इद्रिय विजय भावना उत्तम तप संयम की होती व्याप्ति ॥ उत्तम गुण से पापों का क्षय बाह्याभ्यंतर होती शुद्धि । सर्व परिग्रह त्याग सर्व उपसर्ग जयी होता सुवशुिद्ध | जब चिद्रूप शुद्ध बल होता तह उपसर्ग जयी होता ।
सर्वपरीषह जय करता है चेतन काल जयी होता ॥६॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।
(७) तीर्थेषूत्कृष्टतीर्थं श्रुतिजलधिभवं रत्नमादेयमुच्चैः सौख्यानां वा निधानं शिवपदगमने वाहनं शीघ्रगामि। वात्या कर्मोघरेणौ भववनदहने पावकं विद्धि शुद्ध
चिद्रूपोहं विचारादिति वरमतिमन्नक्षराणां हि षट्कम् ७॥ अर्थ ग्रन्थकार उपदेश देते हंकि हे मतिमान् "शुद्धचिद्रूपोऽहं" मैं शुद्ध चित्स्वरूप हूं ऐसा सदा तुझे विचार करते रहना चाहिये। क्योंकि "शुद्धचिद्रूपोऽहं" ये छह अक्षर संसार से पार करने वाले समस्त तीर्थो में उत्कृष्ट तीर्थ हैं। शास्त्ररूपी समुद्र से उत्पन्न हुए ग्रहण करने के लायक उत्तम रत्न हैं। समस्त सुखों के विशाल खजाने हैं। मोक्ष स्थान में ले जाने के लिये बहुत जल्दी चलने वाले वाहन हैं। कर्मरूपी धूलि के उड़ाने के लिये प्रबल पवन हैं, और संसार रूपी वन के जलाने के लिये जाज्वल्यमान अग्नि हैं। ७. ॐ ह्रीं सौख्यनिधानस्वरूपाय नमः ।
शिवोऽहम् । सतत शुद्ध चिद्रूप शुद्ध का जाप सदा करते रहना । भव समुद्र में यही मंत्र जप निज में ही बहते रहना। सर्वोत्कृष्ट तीर्थ सर्वोत्तम यह दाता है मोक्ष भवन । कर्म रूप रज क्षय कर देता भव वन का दावानल बन॥