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५७ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान परद्रव्यों के साथ जान लो मात्र ज्ञेय ज्ञायक संबंध ।
कर्ता कर्म आदि अन्य विषयों का कभी नही संबंध || अर्थ- मैं शुद्धचिद्रूप हूं ऐसा स्मरण होते ही नाना प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है । मोह का विजय, अशुभ आस्रव और दुष्कर्मो का नाश, मान्यता, अतिशय विशुद्धता, सर्वोत्तम आराधना सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति, मनुष्य जन्म की सफलता, संसार के भय का नाश, सर्वजीवों में समता और सज्जनों के द्वारा कीर्ति का गान होता है। ५. ॐ ह्रीं संसारभयरहितनिर्भयस्वरूपाय नमः ।
निर्मोहस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद एक शुद्ध चिद्रूप स्मरण होते ही बहु सुख हो पास । मोह विजय हो कर्म नाश हो अशुभ आस्रव पूर्ण विनाश। अति विशुद्ध तात्त्विक अराधना रत्नत्रय की होती प्राप्ति। भव भय जाता समता आती कीर्ति शान्ति की होती व्याप्ति। यशोकीर्ति की विजय पताका है चिद्रूप शुद्ध के पास ।
यदि यश पाना है तो इसका ही कर अरे पूर्ण विश्वास ॥५॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
वृत्तं शीलं श्रुतं चाखिलखजयतपोदृष्टिसदभावनाश्च धर्मो मूलोत्तराख्या वरगुणनिकरा आगसां मोचनं च | बाह्यांतः सर्वगत्यजनमपि विशुद्धान्तरङ्गं तदानी
मूर्मीणां चोपसर्गस्य सहनमभवच्छंद्धचित्संस्थितस्य ॥६॥ अर्थ- जो महानुभाव शुद्ध चिद्रूप में स्थित है, उसके सम्यक्चारित्र शील और शास्त्र की प्राप्ति होती है। इन्द्रियों का विजय होता है। तप सम्यग्दर्शन उत्तम भावना और धर्म का लाभ होता है। मूल और उत्तरगुण प्राप्त होते हैं। समस्त पापों का नाश बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का त्याग, और अन्तरंग विशुद्ध हो जाता है एवं वह नाना प्रकार के उपसर्गो की तरंगों को भी झेल लेता है ।