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४९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अतः न मुझको राग द्वेष होता है किसी भांति उत्पन्न | नहीं किसी का अवलबंन है पूर्ण स्वावलंबन सम्पन्न | पूर्ण संयम की दशा आज मैंने. पायी है ॥ आत्मा आप ही आनंद का विधाता है । कर्म जंजाल का ये सर्वदा ही घाता है ॥ गुण अनंतों ने भी इसकी. ही महिमा गायी है । पूर्ण संयम की दशा आज मैंने पायी है ॥ पुष्प खिलता है पूर्ण ज्ञान प्रभा के बल से । सौख्य होता है पूर्ण आत्मा के ही बल से ॥ शुद्ध अनुभव की कृपा से स्वज्योति आयी है । पूर्ण संयम की दशा आज मैंने पायी है ॥
दोहा महाअर्घ्य अर्पित करूं जीतूं सकल विरूप ।
पाऊं महिमा ज्ञान की लखू शुद्ध चिद्रूप ॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तंरगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
ताटक ज्ञान भोर की चौखट पर निज वन्दनवार सजाऊंगा । निज परिणाम शुद्ध होते ही अनुभव वाद्य बजाऊंगा | भाव शुभाशुभ की रजनी पूरी पूरी ढल जाएगी. | शुद्ध ज्ञान दर्शन की ऊषा आकर मंगल गाएगी | नाचेगा स्वभाव आंगन में भेद ज्ञान निधि प्रगटाकर । निज स्वरूप के दर्शन होंगे मोह तिमिर सब विघटाकर॥ अर्न्तदृष्टि सुनिर्मल होगी प्रगटेगा चैतन्य स्वरूप । गुण अनंत गाएंगे निज के गीत देखकर आत्म अनूप ॥ त्रस पर्याय सागरोपम दो सहस अधिकतम मिलती है ।