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अंतिम महाअर्घ्य जो शुद्धात्म तत्त्व पांचों द्रव्यों से भली भांति जाना । दर्शन ज्ञान स्वरूप .आत्मा गुण अनंतधारी माना ||
अंतिम महाअर्घ्य
छंद त्रिभंगी मैं जिन गुण गाऊँ निज को ध्याऊं आत्म तत्त्व वैभव पाऊं। ज्ञानामृत लाऊँ निजपुर जाऊँ शुद्ध सिद्ध पद प्रगटाऊँ। स्वाध्याय करूं मिथ्यात्व हरूँ उर भेद ज्ञान की निधि लाऊं | धर पंच महाव्रत पंच समिति त्रय गुप्ति पूर्ण संयम पाऊं। लूँ तत्त्वज्ञान फल से अपना बल सम्यक् दर्शन उर लाऊं। बन सम्यक् ज्ञानी जिनमुनि ध्यानी परम पवित्र स्वपद पाऊं ॥ मैं निज को ध्याऊं निज पद पाऊं निजपुर में आनंद करूं। भव भाव विनायूँ ज्ञान प्रकारों भव के सारे द्वंद हरूं || ले परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति अब मुक्ति मार्ग पर आ जाऊं। त्रैलोक्य शिखर तनुवात वलय अंतिम सीमा तक मैं जाऊ॥
ताटंक
आगे हैं धर्मास्ति काय का प्रभु अभाव यह ज्ञान करूं | मैं लोक द्रव्य अतएव लोक के अंतिम थल विश्राम करूं|| जीव रु पुदगल धर्म अधर्म अरु काल द्रव्य अंतिम सीमा। आगें तो आकाश अखंड अनंत एक विरहित सीमा।। मै त्रिभवन पति है पंचमगति त्रिलोकाग्र का स्वामी हूँ। सकल द्रव्य पर्यायों का युगपत अन्तर्यामी है |
दोहा महाअर्घ्य अर्पित करूँ नाश दशा विद्रूप ।
महामोक्ष का मूल है एकमात्र चिद्रूप ॥ । ॐ ह्रीं तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अंतिम महाअध्ये नि. ।