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________________ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन भावास्रव द्रव्यास्रव विरहित संवर सहित ज्ञान गुण भूप | भाव बंध अरु द्रव्य बंध से रहित निर्जरा पति निजरूप॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥४॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय. अर्घ्य नि. । . (५) युगपज्जायते कर्ममोचनं तात्विकं सुखम् । लयाच्च शुद्धचिद्रूपे निर्विकल्पस्य योगिनः ॥५॥ अर्थ- जो योहग निर्विकल्प हैं। समस्त प्रकार की आकुलताओं से रहितहैं। और शुद्धचिद्रूप में लीन है। उन्हें एक साथ समस्त कर्मो का नाश और सात्विक सुख प्राप्त होता है । ५. ॐ ह्रीं कर्ममोचनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निष्कर्मसुखस्वरूपोऽहम् । विधाता सुदर्शन मेरु से ऊंचा शुद्ध चिद्रूप का पर्वत । लोक तीनों से हैं ऊंचा शुद्ध चिद्रूप ध्रुव शाश्वत ॥ वही आकुलता से विरहित सुमुनि अविकल्प जो होता । शुद्ध चिद्रूप में लय हो आत्मिक सुख सहित होता ॥ शुद्ध चिद्रूप सरिता से करो अभिषेक निज चेतन । शुद्ध निर्मल बनोगे तुम ज्ञान पति तुम बनो चेतन ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥५॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय. अर्घ्य नि. । (६) अष्टावंगानि योगस्य यमो नियम आसनम् । प्राणयामस्तथा प्रत्याहारो मनसि धारणा ||६|| . अर्थ- यह, यम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान प्रत्याहार और समाधि ये आठ अंग योग के हैं इन्हें के द्वारा योग की सिद्धि होती है। इसलिये जो मुनि मोक्षाभिलाषी हैं।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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