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- ३६१ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान गुण अनंत आधार भव्य शुद्धात्म तत्त्व ही महा महान । शुद्ध आत्मा का संवेदन प्राप्त कराता है निर्वाण ॥ . साधु निग्रंथ वनवासी करें संयम का दृढ़ पालन । शुद्ध चिद्रूप को ध्यायें यही शिक्षा हो मन भावन ॥ शुद्ध चिद्रूप की निधियाँ भरी है ज्ञान सागर में । . मगर वैचित्र्य तो यह है भरी वे आत्म गागर में ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥३॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४) संसारभीतितः पूर्व रुचिमुक्ति सुख दढा । - जायते यदि तत्प्राप्तेरुपाय: सुगमोस्ति तत् ॥४॥ अर्थ- जिन मनुष्यों की संसार के भय से पहिले ही मोक्ष सुख की प्राप्ति में रुचि दृढ़ है। जल्दी संसार के दु:खों से मुक्त होना चाहते हैं। समझ लेना चाहिये। उन्हें मुक्ति की प्राप्त का सुगम उपाय मिल गाय। वे बहुतं शीधघ मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । ४. ॐ ह्रीं संसारभयरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्भयानन्दस्वरूपोऽहम् । .
. विधाता शुद्ध चिद्रूप के ही रल आभूषण मुझे भाए । शुद्ध चिद्रूप पाने को अतः निज भाव उर आए || जिन्हें संसार से है द्रोह मोक्ष की प्राप्ति में रुचि है । मुक्ति की विधि सुगम पाते ह्रदय में पूर्णतः शुचि है || वेश निग्रंथ धारण कर पूर्ण संयम ह्रदय लाते । शुद्ध चिद्रूप को ध्याते मुक्ति सुख शीघ्र वे पाते ॥ शुद्ध चिद्रूप से भूषित त्रिकाली ध्रुव ही है आत्मा । यही सिद्धात्मा जानो यही है श्रेष्ठ परमात्मा ॥