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________________ ३५७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान C अंतरात्मा भव स्थिति छेदन में तत्पर रहता है । फिर यह परमात्मा हो जाता निज स्वभाव में बहता है | ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जन्म जरा -मृत्यु विनाशनाय जलं नि. । निर्विकार शीतल चंदन की सुरभि मुझे अब भायी है । भव आताप नाश करने की मैंने शपथ उठायी है | एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है । राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है | ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताष विनाशनाय चंदनं नि । निर्विकार तंदुल धवलोज्ज्वल बड़े भाव से लाया हूं. अक्षय पद पाने को स्वामी चरण शरण में आया हूं ॥ एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है । राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है |. ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्ताय: अक्षतं नि. । निर्विकार पुष्पों की पावन गंध काम ज्वर नाशक है. 1 उर निष्काम भावना जागी जो गुणशील प्रकाशक है ! एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है । राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है. ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. । निर्विकार नैवेद्य रसमयी परम तृप्ति के दाता हैं । क्षुधारोग विध्वंसक हैं ये त्रिभुवन में विख्याता हैं | एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है । राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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