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________________ ३५६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन अन्तरात्मा तो पुण्यानुबंधि पुण्य ही करता है । शुद्ध भाव की ललक ह्रदय में शुद्ध भाव भी करता है || ॐ पूजन क्रमाकं १९ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन स्थापना छंद गीतिका तत्त्व ज्ञान तरगिणी अध्याय अष्टादशम परम । सतत जाग्रत रहूं निज में सतत हो अविकार श्रम ॥ शुद्ध हूं चिद्रूप हूँ यह ध्यान करना है उचित । महा श्रम क्रम पूर्वक परिपूर्ण करना सुनिश्चत ॥ यह अंतिम अध्याय हैं जिन आ द्रव्य भाव जिन मुनि बनूँ पाऊ पद अविकार ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागम अत्र अवतर अवतर संवौषट् । " ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागम अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागम अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अष्टक छंद ताटंक निर्विकार मन से लाया हूँ उज्ज्वल जल भव भयहारी । जन्म जरा मरणादि नाश हित पाऊं शिवपद अविकारी ॥ एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति का लक्ष्य ह्रदय में धारा है । राग द्वेष मोहादि भाव से मैंने किया किनारा है ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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