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३५४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन द्रव्य प्राण से सदा प्रथक है शुद्ध चेतना प्राण सहित । नव तत्त्वों छह द्रव्यों मे सर्वोत्तम है परभाव रहित ॥ हित अहित विवेकी हैं वे चिद्रूप शुद्ध में रत ही । . विद्वान निराकुल सुख को पाते हैं निज शाश्वत ही ॥ ऐसा सुख अन्य मनुज को मिलता है नहीं कभी भी ।
पाता वह सौख्य अनाकुल ध्याता चिद्रूप जभी भी ॥२०॥ ॐह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचिततत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपरुचयेसुखस्वरूप प्रतिपादकसप्तदशाध्याये सहजानन्दोकस्स्वरूपाय पूर्णायू निर्वपामीति स्वाहा ।
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_छंद गीतिका ज्ञान भाव महान का आनंद ही कुछ और है । एक शुद्ध महान निज चिद्रूप ही सिर मौर है || चिद्रूप का जो ध्यान करते वही पाते मोक्ष सुख । जो न इसको जानते है वही पाते विविध दुख | इसलिए चिद्रूप निज का ध्यान करना चाहिए । शुद्ध बुद्ध स्वरूप मय निर्वाण पाना चाहिए |
छंद गीत रसिक चेतन सुनो मेरी । स्वपरिणति क्यों नहीं हेरी || कहाँ तुम जा रहे बोलो । लगा संसार की फेरी ॥ भूल अपना स्वभावी बल । बने हो तुम सदा निर्बल || ये परिणति मोह दुष्टा है । इसी ने आत्मा घेरी ॥ विभावी विष ही पीते हो । ज्ञान से पूर्ण रीते हों ॥ अभी तुम त्याग दो इसको । करो मत तुम तनिक देरी॥ अनंतों गुण के स्वामी तुम । शुद्ध हो निज विरामी तुम ॥ शुद्ध चिद्रूप छवि देखो । जिसे सिद्धों ने भी टेरी ||
दोहा महाअर्घ्य की भावना भी मंगलमय होय । परम शुद्ध चिद्रूप को पाये जो भी जोय ||
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